**खूँटी पर बँधी है रस्सी**

खूँटी पर बँधी है रस्सी
एक डोर भवसागर की ओर
दूजी डोर धर्मराज की हाथ ।

धरती पर आया है ,
मुसाफ़िर बन कर
तू यूँ डाले है, धरती
पर डेरा ,जैसे की वापिसी
का टिकट ही न हो तेरा
हर एक का है,वापिसी का टिकट
 जीवन की डोर पहुँच रही है,ना जाने
किस-किस की धर्मराज के ,ओर
मौत की खूँटी पर लटकी है,गर्दन
पैर लटक रहे हैं कब्र पर
उस पर असीमित जिज्ञासाओं का मेला
दुनियाँ का मेला, मेले में हर शख्स अकेला
फिर काहे का तू पाले है,जिज्ञासाओं का झमेला,
क्यों करता है, तेरा-मेरा
दुनियाँ है,एक हसीन मेला
इस मेले से नहीं कुछ ले जा पायेगा
आ हम सब मिलकर अपनत्व के बीज डालें
परस्पर प्रेम की पौध उगा लें
भाईचारे संग प्रेम का वृक्ष जब पनप जायेगा
हमारे इस दुनिया से चले जाने के बाद भी
हमारा नाम रह जायेगा ।
मेले का आकर्षण बढ़ जायेगा
हर कोई परस्पर प्रेम का पाठ पड़ जायेगा ।।💐💐💐💐💐




**💐चाँद का दीदार**


💐* करने को चाँद का दीदार 
 मैंने आकाश की और निगाहें
जो डालीं,  निगाहें वहीं थम गयीं💐*

*आकाश में तो झिलमिलाते तारों** की 
बारात थी ,सितारों* का सुंदर संसार 
असँख्य सितारे** झिलमिला रहे थे।
मानों कोई जशन हो रहा हो *****
झिलमिलाते सितारों के बीच 
चाँदनी बिखेरते चाँद की चमकीली 
किरणें सलौनी और सुहानी।

दिव्य, अलौकिक किसी दूजे जहाँ
की परिकल्पना लिये ,मैं कुछ पल को
वहीं खो गया।
आकाश था,मैं था,सितारों* की बारात थी** 
चाँद की चाँदनी थी ,मानों आकाश के 
माथे पर सरल, निर्मल,सादगी, के श्रृंगार 
की बिंदिया ...
चाँद सी लगा के बिंदिया आकाश
अपने सादगी भरे श्रृंगार से सबको 
आकर्षित कर रहा था ।
सबको अपनी चाँदनी से आकर्षित
करते चाँद कुछ तो खास है तुझमें
जो तेरे दीदार से लोगों के दिलों के फैसले लिये
जाते हैं ।

"महत्वकांशाये"

 * महत्वकांशाएँ*   आकांक्षाएं तो बहुत होती हैं,
   परन्तु जो "महत्व" की "आकांशाएँ" होती हैं
   वो "महत्वकांशाएँ "होती हैं ।

* मैं जानता हूँ, कि तू बहुत महत्वकांशी
 है, ए मानव,तेरी काबलियत पर मुझे
 यकीन है *
"अभी तो तू कदम,दो क़दम चला है,
मैं नहीं चाहता तेरे क़दम रुक जायें।
तू जीत का जशन मनाना चाहता है ,
बहुत प्रसन्न हो रहा है, अभी तो तू एक
पड़ाव पर ही पहुंचा है ,मंजिल पर नहीं।


यही तेरी मंजिल है, ऐसा हो नहीं सकता
अभी तो तुझे बहुत ऊंची उड़ाने भरनी हैं "

उड़ान अभी बाकी है, अभी तो पंख फडफ़ड़ाएं हैं,
मैं जानता हूँ ,तेरी काबलियत,तेरी सोच से भी ऊँची है ।
अपनी छोटी सी जीत पर यूँ ना इतरा।
नहीं तो पाँव वहीं रुक जाएंगे।

"अहंकार का नशा चढ़ जायेगा
अंहकार के नशे मे तू सब कुछ भूल जायेगा"
जीत अभी बाकी है ,उड़ान अभी बाकी है ,
मंजिलें मिसाल अभी बाकी है ।
तेरे करिश्मों से अन्जान ,पर कद्रदान
अभी बाकी हैं ।



** धरती माँ**

 मैं धरती माँ का अपकारी हूँ,
ये धरती न तेरी है, ना मेरी है
ना धरती माँ के लिये कत्ले आम करो
ना धरती माँ का अपमान करो ।
जख्मो से धरती छलनी है ,मत अपने विनाश का
सामान करो ,धरती का सीना जब फट  जायेगा
विनाश ही विनाश हो जायेगा ।

भगवान ने धरती हम मनुष्यों के लिये
बनायी ,धरती का भार मनुष्यों को दिया।

तुम चाहो तो धरती को स्वर्ग बना लो या नरक
मनुष्यों को तो देखो ,अपने बुरे कर्मों
द्वारा धरती को युद्ध भूमि ही बना डाला ।

अरे ये धरती हम मनुष्यों की है ,ये इस धरा का
उपकार है कि उसने हमें रहने के लिये स्थान दिया
जानते तो अग़र धरती ना होती तो हम
*बिन पैंदी के लौटे* की तरह लुढ़कते रहते
प्रकृति के रूप में हमें जो विरासत मिली है
उसका संरक्षण करो , मत इसका भक्षण करो।
अपने हक में तो सब दुआ करते हैं
 काश की सब सबके हित में दुआ
करने लग जाये तो धरती पर स्वर्ग आ जाये ।।



"इस वर्ष विजयदशमी पर, कलयुगी रावणों का अंत करने का निर्णय लें।


*विजय दशमी*
" सच्चाई की बुराई पर जीत का पर्व"
 सतयुग में जब अहंकारी रावण का अत्याचार बढ़ता जा रहा था ,रावण जो परम् ज्ञानी था ,परन्तु अपने अहंकार के मद के नशे में चूर रावण दुष्टता की चरम सीमा को पार करता जा रहा था ,धरती पर साधु,सन्यासी,सरल ग्रहस्थी लोग रावण के अत्याचारों से हा-हा कार करने लगे ,तब धरती को राक्षस रूपी रावण से  पापमुक्त करने के लिये, परमात्मा रामचन्द्र को लीला करनी पढ़ी ,और श्री राम ने लीला करते हुए ,अपनी भार्या सीता को रावण की कैद से आजाद कराने के लिये ,भाई लक्ष्मण ,हनुमान, सुग्रीव,जाववंत, आदि वानर सेना के सहयोग से ,रावण रूपी राक्षस से धरती को पाप मुक्त कराया ।
तभी से आज तक रावण, कुंभकर्ण,और मेघनाद के पुतलों को जला कर गर्वान्वित महसूस किया जाता है ।
 
आज कलयुग में में भी इस विजय दशमी की बहुत महिमा है ,अच्छी बात है । परन्तु कब तक ?
सतयुगी रावण तो कब का मारा गया । प्रत्येक वर्ष रावण के पुतले को जला कर हम मानवीय जाति शायद यह साबित करना चाहती कि रावण तो बस एक ही था ,और तब से अब तक रावण का पुतला जला कर हम बहुत श्रेष्ठ काम कर रहे हैं ,अजी कुछ भी श्रेष्ठ नहीं कर रहे हैं आप लोग , अगर हिम्मत है तो कलयुगी रावणों से धरती को पाप मुक्त करके दिखाओ।
आज कलयुग में मानव रूपी मन में कई रावण पल रहे हैं ।आज भाई-भाई का दुश्मन है ,परस्पर प्रेम के नाम पर सिर्फ लालच ही भरा पड़ा है । कोई किसी को आगे बढ़ते देख खुश नहीं है ,हर कोई आगे बढ़ने की होड़ में एक दूसरे को कुचल रहे हैं ।
आज कलयुग में एक नहीं अनगिनत रावण धरती पर विचरण कर रहे हैं ,अगर करना है तो इन रावणों का अंत करो
आज के युग मे सिर्फ रावण के पुतले फूँकने से कोई लाभ नहीं होगा।
और कोई भगवान नाराज़ नहीं होंगे ,अगर इस वर्ष हजारों रुपये के रावण, कुंभकर्ण,और मेघनाद, के पुतले आप नही फूंकेंगे ,तो भगवान प्रसन्न होंगे।
 अगर उन्हीं रुपयों से आप किन्हीं जरूरतमंदों की सहायता करेंगे। किसी परिवार में सच्ची शिक्षा का बीज बोयेंगे किसी को जीवन में आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करेंगे ।
*विजयदशमी का पर्व *मनाईये  अवश्य मनाईये पर  सर्वप्रथम दिलों में परस्पर प्रेम को दीप जलाइए ।
*अपनत्व की फ़सल उगाओ ,वैर ईर्ष्या, निन्दा, हठ, क्रोध आदि राक्षसी वृत्तियों के पुतले हर वर्ष जलायें ।
बंद करें अब ये पुतले फूंकने का खेल आज से प्रत्येक वर्ष "विजयदशमी" पर अमानवीयता ,और अहंकारी रावणों रूपी विचारधाराओं का अंत कर उनके पुतले फुंकिये ।
  

* अमृत और विष*

 *जहर उगलने वाला नहीं, ज़हर पीने वाला हमेशा महान होता   है* 
*  बनना है तो उस कड़वी दवा की तरह बनिये जो शरीर  में होने वाले रोगों रुपी ज़हर को नष्ट करती है ,ना कि उस ज़हर की तरह जो विष बनकर किसी को भी हानि ही पहुंचता रहता है*
* शब्दों का उपयोग बड़े सोच समझ कर करना चाहिये 
 कुछ लोग कहते हैं ,हम तो दिल के साफ हैं ,जो भी कहते हैं ,
 साफ-साफ कह देते हैं ,हम दिल में कुछ नहीं रखते ।
 अच्छी बात है ,आप सब कुछ साफ-साफ बोलते हैं ,दिल में कुछ नहीं रखते ।
दूसरी तरफ आपने ये भी सुना होगा कि ,शब्दों का उपयोग सोच-समझ कर करिये । "मुँह से निकले हुए शब्द "और "कमान से निकले हुए तीर"वापिस नहीं जाते ,कमान से निकला हुआ तीर जहाँ पर जा कर लगता है ,अपना घाव कर जाता है ,अपने निशान छोड़ ही जाता है ,माना कि घाव ठीक हो ही जाता है,परंतु कड़वे शब्दों के घाव जीवन भर दिलों दिमाग पर शूल बनकर चुभते रहते हैं ।
हमारे प्राचीन, ग्रन्थ,इतिहास इस बात के बहुत बड़े उदाहरण हैं,कि देवताओं और दानवों की लड़ाई के समय *समुद्र मंथन हुआ *उस समय समुद्र से *अमृत और *विष दोनों निकले ,कहते हैं समुद्र मंथन से निकला हुआ विष एक जलजले के रूप में था ,अगर उस जलजले को यूं ही छोड़ दिया जाता तो वो सम्पूर्ण विश्व को जहरीला कर देता और युगों-युगों तक उसका असर आने वाली नस्लों को जहरीला करता रहता । सम्पूर्ण विश्व को उस जहरीले विष रूपी जलजले से बचाने के लिये ,*परमात्मा शिव शंकर ने उस विष को अपने कंठ में धारण किया ,और भगवान शिव तब से *नीलकंठ *कहलाये । तातपर्य यह कि, कई बार इस तरह के विष रूपी शब्दों के जहर से अपने कुटुम्ब, व समाज को जहरीला होने से बचाने के लिये कड़वे जहर रूपी विष को पीना पड़ता है ।*जहर उगलने वाला नहीं ,जहर पीना वाला ही हमेशा पूजनीय होता है*
जहाँ बात सत्य की है,सत्य कुछ समय के लिये झूठ के काले घने बादलों के बीच छुप जरूर सकता है ,पर जैसे ही काले घने बादल हटते हैं ,सत्य सामने होता है ,जिस तरह साफ-स्वच्छ निर्मल जल सब कुछ साफ-साफ दिखायी देता है ,चाहे वो कंकड़ हो या हीरा ।

आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...