" शोहरत का नशा *

( शोहरत का नशा जब चड़ता है,तब मनुष्य ऊपर बस ऊपर की और देखता है उसे यह भी ज्ञात नहीं होता की एक ना एक दिन यह नशा जब उतरेगा तब वह चित होकर धरती पर गिरेगा )

   रमन और मयंक दो मित्र थे ,बचपन से एक साथ एक ही विधालय में पड़े ,दोनों में अच्छी मित्रता थी ।
लेकिन जैसे -जैसे उम्र बड़ रही थी ,दोनों में एक अलग सी दूरियां पैदा होने लगी थी ।
रमन और मयंक यूं तो बहुत अच्छे मित्र थे और भावात्मक सम्बन्ध था रमन और मयंक में ।

  रमन को विरासत में अपने पिता का कारोबार ,जमीन जायदाद की हिस्सेदारी मिली थी ।

 वहीं मयंक एक मधयम परिवार से था ,मयंक पिताजी नौकरीपेशा थे ,और मयंक भी किसी कम्पनी में नौकरी करने लगा था ।

 रमन के रहन -सहन का स्तर ,बहुत बड़ गया था ,मंहगी, लम्बी गाड़ियों में घूमना उसे बहुत अच्छा लगता था । रमन ने अपने व्यापार में भी बहुत तरक्की कर ली थी ,शोहरत रमन के कदम चूम रही थी।

यहां मयंक अपने आफिस के काम काज में व्यस्त रहता था ।
एक दिन मयंक को आफिस के काम से रमन के पास जाना पड़ा ,कुछ कागजों में साइन करने थे , मयंक ने रमन के कमरे के बाहर खड़े वाच मेन से कहा ,की साहब को कहें की उनका मित्र मयंक आया है,आफिस के काम से, वॉचमैन अन्दर गया रमन ने का जवाब था ,की कागज दे दिए जाएं ,उन्हें पड़कर उनपर साइन हो जायेंगें ,यहां कोई किसी का मित्र नहीं सब कर्मचारी हैं ।
 थोड़ी देर में वॉचमैन ने साइन किए हुए कागज लाकर मयंक को दे दिए थे।
 मयंक ने वॉचमैन से कहा ,की वह रमन से निजी रूप से मिलना चाहता है ,आखिर वह उसका मित्र है ,यह संदेशा रमन जी को दिया जाए ।
 रमन ने वॉचमैन से कहलवा कर मयंक से मिलने को मना के दिया था ।
रमन उदास मन से वहां से जाने लगा ,अब मयंक समझ गया था की रमन की आंखों पर उसकी धन-दौलत और शोहरत का पर्दा चड़ चुका है ।
  तभी रमन ,अपने आफिस से बाहर जाते हुए चाल में तेजी थी ,और शोहरत का अहंकार था ।




आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...