*मीठा ज़हर **


जख्मों पर मरहम लगाते-लगाते
कब हम सयाने हो गये पता ही नहीं चला ।

अब ना ज़ख्म है
 ना जख्मों के दर्द का एहसास है ।
किसी जमाने मे जो ज़ख्म दर्द बनकर चुभते थे
आज उन्हीं जख्मों का एहसास,जीवन में घोल देता है
एक मीठा सा ज़हर।


दर्द तो बहुत दिया जख्मों ने मगर
कयोंकि? बहुत लम्बे सफ़र तक रहे थे,ज़ख्म मेरे हमसफ़र
कैसे भूल जाऊँ मैं उन मीठे जख्मों की कसक।
माना कि जख्म आये थे जीवन मे बन के कहर ।
जीवन की कसौटी थी मग़र ,
पर इन्हीं से बुलन्द हुआ था, मेरे हौसलों का सफ़र
सीखे थे ,इन्हीं से जिन्दगी के कई सबक ।
 आज कोई जख्म  नहीं
 दर्द भी नहीं ।पर ना जाने क्यूँ
कुरेदता है ये दिल पुराने जख्मों
के निशान
तजुर्बा कहता है जब लम्बे समय तक रहे जो कोई
हमसफ़र , फिर चाहे वो
दर्द ही सही ,अपने से हो जाते हैं  ,मीठे से लगने लगते हैं ,
मीठे जख्मों के ज़हर ।।
माना कि दुखदायी था ,
फिर भीआज मीठा सा लगता है
मीठे जख्मों का जहर,








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