" हँसिये हंसाइए हँसना संतुष्टता की निशानी है "





हँसिये ....हँसाइये ....क्यों रो -रोकर जियें जिन्दगी
जिन्दगी का नाम ही तो कभी ख़ुशी कभी ग़म है




हँसना संतुष्टि की निशानी है।

खुश रहने का सबसे बड़ा मंत्र है संतुष्टि… प्रसन्नता ख़ुशी केवल भाव ही नहीं अपितु जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा भी है।
ख़ुशी या प्रसन्नता को बेचा या खरीदा नहीं जा सकता।

 ख़ुशी प्रसन्नता सृष्टिकर्ता द्वारा दिए गए अनमोल रत्न हैं। ख़ुशी को जितना लुटाया जाए उतनी बढती है।

ख़ुशी या प्रसन्नता वातावरण को सुंदर बनाते हैं।हँसना एक सकारात्मक सोच है ,जिससे शुभ शक्तियों का सांचर होता है।

कुछ लोग मानते हैं की ख़ुशी सिर्फ धन -दौलत वालों के पास होती है।
परन्तु यह सत्य नहीं है। धन -दौलत वाले अधिक चिंता ग्रस्त रहते हैं ,उन्हें इस बात की चिंता रहती है। की उनकी दौलतकहीं चोरी न हो जाये नुकसान न हो जाये।

हाँ धन -दौलत वालों के पास सुविधाएँ अधिक अवश्य होती हैं परन्तु अधिक सुविधाएँ ही असुविधा का भय का कारण होतीं हैं। जबकि कम दौलत वाला अधिक खुश रह सकता है.।
ख़ुशी बाहरी हो ही नहीं सकती, क्योंकि बाहरी वस्तुएं हमेशा रहने वाली नहीं होती जो ख़ुशी आन्तरिक होती है, वह टिकती है ।
इसलिए कहते हैं खुश रहो सवस्थ रहो ,क्योंकि स्वस्थ मन से सवस्थ जीवन जिया जा सकता है।

अगर हम बच्चों की तरफ देखे तो पाएंगे की वह हमेशा खुश रहतें हैं।उन्हें कोई कोई चिंता भय नहीं होती। वह निर्मल होतें हैं। निर्मल यानि बिना मल के मल इर्ष्या द्वेष का अहंकार का। हम स्वयं को निर्मल करें कोई मल न हों। कोई दुर्भावना न हों फिर देखिएगा तरक्की कैसे आपके कदम चूमेगी।

जो होना है वो होकर रहेगा। फिर क्यों चिंता करना। चिंता काँटों का जाल है ,ख़ुशी फूलों का बिस्तर। ख़ुशी को बेचा या खरीदा नहीं जा सकता ,इसे पाया जाता है यह वो बेल है जो हमेशा फैलती है खुश रहना जीवन की औषधी है जो जीवन को अरोयग्य बना खुशहाली फैलाती है।

जीवन में उतार चढ़ाव तो आते रहेंगे। सुख दुःख में सम रहना जीवन की हर परिस्थिति में सम रहना एक अच्छे मानव के सन्देश हैं।
जिस तरह फिल्मो में काम करने वाला नेता या अभिनेता या अभिनेत्री आदि अन्य अपने अपने किरदार को अच्छे से निभाते हैं कभी हंसाते है कभी रुलातें हैं हैं इसी तरह संसार में रहते हुए हमे अपने अपने किरदार को निभाना होता है।
परन्तु मानव नाटक करते -करते यह भूल जाता है और संसार पर अपना अधिकार समझने लगता है। एक फर्क इतना होता है की संसार के रंग -मंच में हमारा किरदार लम्बा होता है हमें इतनी छूट होती है कि हम अपना भला बुरा समझ सकें अपनी आवयश्कता अनुसार सही राह चुन सकें।
 तो फिर क्यों ना हम जिन्दगी के रंगमंच पर अपने किरदार को ख़ूबसूरती से हंसी ख़ुशी निभाये,कि पर्दा गिर भी जाए यानि हम इस दूनियाँ से चले  भी जायें उसके बाद भी हमारे जीने के ढंग की तारीफें होती रहें ।




" शिक्षक का स्थान सबसे ऊँचा "

शिक्षक का स्थान सबसे ऊँचा”


आदरणीय, पूजनीय ,

सर्वप्रथम ,  शिक्षक का स्थान  समाज में सबसे ऊँचा

शिक्षक समाज का पथ प्रदर्शक ,रीढ़ की हड्डी

शिक्षक समाज सुधारक ,शिक्षक मानो समाज.की नींव

शिक्षक भेद भाव से उपर उठकर सबको सामान शिक्षा देता है ।

शिक्षक की प्रेरक कहानियाँ ,प्रसंग कहावते बन विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा स्रोत ..
अज्ञान का अन्धकार दूर कर ,ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं।

तब समाज प्रगर्ति की सीढ़ियाँ चढ़ उन्नति के शिखर पर
 पहुंचता है,

जब प्रकाश की किरणे चहुँ और फैलती हैँ ,
तब समाज का उद्धार होता है ।
बिन शिक्षक सब कुछ निर्रथक, भरष्ट ,निर्जीव ,पशु सामान ।

शिक्षक की भूमिका सर्वश्रेष्ठ ,सर्वोत्तम ,
नव ,नूतन ,नवीन निर्माता सुव्यवस्तिथ, सुसंस्कृत ,समाज संस्थापक।

बाल्यकाल में मात ,पिता शिक्षक,  शिक्षक बिना सब निरर्थक सब व्यर्थ।

शिक्षक नए -नए अंकुरों में शुभ संस्कारों ,शिष्टाचार व् तकनीकी ज्ञान की खाद डालकर सुसंस्कृत सभ्य समाज की स्थापना करता है ।।।।।।।



"महिलाओं की पोषकों पर ही चर्चा क्यों ?"

      "  महिलाओं की पोशाकों पर ही चर्चा क्योंं ?"

 संस्कृति और संस्कार सिर्फ महिलाओं के लिये ही क्यों ?
हर देश की अपनी सभ्यता और संस्कृति होती है ,यह बात निसन्देह सत्य है ।
हमारे संस्कार ,संस्कृति,परम्परायें प्राकृतिक वातावरण का
परिवेश जो हमारी जड़ों के साथ जुड़ा होता है ।वह हमें विरासत के रूप में मिलता है ,और उन संस्कारो को हम परम्पराओं की विरासत के रूप में स्वीकार कर अपना लेते हैं ।
संस्कृति ,संस्कारों और परम्पराओं को अपनाना बहुत अच्छी बात है,परन्तु उन्ही परम्पराओं को आने वाली पीड़ी पर थोपना उन्हें भावात्मक रूप से मजबूर करना की यह हमारे संस्कार हैं हमारी संस्कृति है बस तुम्हे आँखे बन्द करके इन्हें अपनाना है ।

 मेरी दृष्टि में यह अपराध है ।

कुछ परम्पराओं में वक्त के साथ अगर बदलाव आता है ,तो कोई दोष नहीं ।
भारतीय संस्कृति की विश्व में अपनी विशिष्ट पहचान है।
संस्कार और संस्कृति कोई चिन्ह तो नहीं ?

संस्कार हमारे कर्मो में होने चाहियें जिससे की संस्कृति की झलक हमारे कर्मो में और व्यवहार में झलके ।

संस्कृति मात्र  भोजन और पोशाकों में निहित नहीं होनी चाहिये।

 कोई महिला क्या पहनती है या क्या पहने उसकी आजादी हाँ शालीनता सभ्यता होनी आव्यशक है । सामने वाले की नज़र में भी शालीनता होनी चाहिये ।

महिलायें क्या पहने क्या ना पहने अगर इस पर चर्चा होती है तो फिर पुरुष वर्ग को क्यों इससे वंचित रहे उनके पहनावे पर भी चर्चा होनी आव्यशक है ।।

" हम जैसा सोचते हैं ,वैसा ही बनने लगते हैं "

मनुष्य की स्वयं की सोच ही उसके सुख और दुःख का कारण बनती है **

  किसी भी मनुष्य की सोच ही उसके सुख और दुःख का कारण बनती है  मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बनने लगता है ।

  नकारात्मक सोच हर मानव को घिरे रहती  है ,कहीं कुछ गलत न हो जाए ,कोई हमारे लिए बुरा सोचता होगा किसी ने हमारे लिए बुरा कर दिया तो .....

 सब हमारे दुश्मन हैं हमारी तो किस्मत ही खराब है न जाने क्यों हमारे साथ ही सब गलत क्यों होता है हमारा क्या होगा हम जो काम करतें है कभी ठीक नहीं होता ।

    हां -हां  मैं तुम्हारी किस्मत हूं  मैं  तो कई बार  तुम्हारे दरवाजे पर आईं तुम्हें आवाज भी दी पर तुम हर बार अपने ख्यालों में गुम नकरात्मक सोच के साथ मिले।
  मैंने तुम्हारे अच्छे भाग्य ने तुम्हें कई बार समझाने की कोशिश भी की पर तुम नकारात्मकता से बाहर ही नहीं आये ।
  चलो अभी भी देर नहीं हुई है कुछ नहीं बिगड़ा ना बिगड़ने वाला है ,हुम्हारी नकरात्मक सोच ही तुम्हें खाये जा रही है।
 तुम्हें अंदर ही अंदर दीमक की तरह खोखला कर रही है चलो कुछ अच्छा सोंचे किस में इतना दम की हमारा कुछ बिगाड़ सके ,हम स्वयं अपने बादशह है

  **हमारे विचार हमारी संपत्ति हैं क्यों इन पर नकारात्मक सोच का दीमक लगने दें चलो  कुछ  सोंचे कुछ अच्छा करें **

* श्री कृषण जन्माष्टमी की बधाई *

भाद्रपद की कृष्ण अष्टमी
           हर्षित मन ,चहुँ ओर सब प्ररफुल्लित**
     
           * *   *दिव्य आलौकिक
              "श्री कृष्ण " जन्माष्टमी की
                  बधाई हो, बधाई
       
             सवागत में कृष्णा के , घर ,मंन्दिर और
             बाज़ारों की साज सज्जा तो निहारो
             मानो धरती पर स्वर्ग ही ले आई।
         
            यशोदानन्द का लाला सारे जग का
           रखवाला , बन नन्द गाँव का ग्वाला
                माखनचोर वो नंदकिशोर
         
           गोपियों का प्यारा ,दिव्य आलौकिक
                  प्रेम की भाषा सिखा गया ।

     धर्म की रक्षा हेतु गीता का ज्ञान भी दे गया।
     धरती को अंहकार के अन्धकार से पाप मुक्त किया
 
  कृष्ण ,गोपाल , कान्हा ,माखन चोर नंदकिशोर ,केशव ,मुरारी
  ना जाने कितने नामों से सबका लाडला ,बन सबके दिलों में
  राज कर अपना दीवाना कर गया कृष्ण।
 जन्म दिवस के शुभ बेला ,मेरा कृष्ण सबका चेला
वो अलबेला सखा ,सहेला ।
जन्म दिवस पर स्वयं आकर देखो कन्हैया
धरती वासियों ने तुम्हारे जन्म दिवस पर
 स्वागत में धरती को स्वर्ग सा किया अलबेला
सुवगतम् सुस्वागतम्  राधे संग कृष्णा ।
पधारो पधारो ........

" मेरी जड़ों ने मुझे सम्भाल रखा है "

            "मेरी जड़ों ने मुझे सम्भाल रखा है "
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     मेरी जड़ों से मेरी खूबसूरती है
     मेरे माली का ,शुक्रिया जिसनें
     मेरे बीजों को पौष्टिक खाद दी,
     मुझे जल से सींचा, सूर्य ने मेरे तेज
     को बढ़ाया ।
   
     मैं जो आज बाग़ बगीचों में
     कहीं किसी की क्यारियोँ में
     घरों के आँगन की खूबसूरती
     बड़ा रहा हूँ ,कि मेरी जड़ों ने मुझे
     सम्भाल रखा है ।वरना  मैं तो
     कब का बिखर गया होता ।
     
   

     मेरे स्वभाव में एक आकर्षण है
     जो सभी को अपनी और आकर्षित
     कर लेता हूँ । मेरी कई प्रजातियाँ हैं
     मेरा हर रंग ,हर रूप सहज ही
     आकर्षक है ।

     मेरी महक पवन संग-मिल कर
     वातावरण महकाती है,मुझसे
     प्राण वायु भी है ।
     मुझसे इत्र भी बनाई जाती है
     मैं प्रेम प्यार का  प्रतीक हूँ ।
     मित्रता आपसी भाईचारे में भी
     प्रेम की डोर बाँधने के लिये
     मैं सम्मानित होता हूँ ।

     ख़ुशी हो या ग़म मैं हर स्थान पर
     उपयोग होता हूँ ।

     अपनी छोटी सी जिन्दगी में
     मैं किसी ना किसी काम आ जाता हूँ
     सार्थक है जीवन मेरा , जो मैं
     किसी रूप मे काम तो आ जाता हूँ ।
     मैं प्रकृति की अनमोल देन ...

         " मै पुष्प हूँ ,   "

     अपनी छोटी सी पर
     सार्थक जिंदगी से मैं खुश हूँ ।
   
     



" कुदरत के नियम "

 तूफानों का आना भी
कुदरत का नियम है   ।

क्योंकि तूफ़ान भी तब
आते हैं ,जब वातावरण
में दूषित वायू का दबाब
बढ जाता है।

ठीक इसी तरह मनुष्यों
के जीवन में भी तूफ़ान आतें हैं।
तूफानों का आना भी स्वभाविक है ।

जिस तरह कुछअन्तराल के बाद
विष का असर नज़र आने ही लगता है ।

फिर इल्जाम लगाना
जब सीमायें ही नहीं बाँधी
तो बाँध के टूट जाने का
कैसा डर?

कभी नहीं हुआ कि
काली घनी अँधेरी रात के
बाद दिनकर से प्रकाशित
सुनहरी ,चमकीली ,तेजोमयी
सुप्रभात ना आयी हो।

प्रकृति अपने नियम
कभी नहीं तोड़ती
         
मनुष्य ही अपनी हदें पार
कर जाता है ,और इल्जाम
दूसरों पर लगता है ।

आखिर कब तक सहे कोई
विष चाहे कैसा भी हो
असर तो दिखायेगा ही ।

कहते भी हैं ना ,बोये पेड़ बबूल
का तो आम कहाँ से आये ।
फिर सोचिये जैसा बोएँगे
वैसा फल मिलेगा ।

आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...