Ritu Asooja Rishikesh , जीते तो सभी है , पर जीवन वह सफल जो किसी के काम आ सके । जीवन का कोई मकसद होना जरूरी था ।परिस्थितियों और अपनी सीमाओं के अंदर रहते हुए ,कुछ करना था जो मेरे और मेरे समाज के लिए हितकर हो । साहित्य के प्रति रुचि होने के कारण ,परमात्मा की प्रेरणा से लिखना शुरू किया ,कुछ लेख ,समाचार पत्रों में भी छपे । मेरे एक मित्र ने मेरे लिखने के शौंक को देखकर ,इंटरनेट पर मेरा ब्लॉग बना दिया ,और कहा अब इस पर लिखो ,मेरे लिखने के शौंक को तो मानों पंख लग
*विशाल जड़ें*
बंजर पथरीली सुखी पड़ी राहों पर
पड़ गई है दरारें अब इन राहों पर
कोई बड़ा वृक्ष नहीं जिसकी बड़ी- बड़ी
विशालकाय जड़े धरती पर
नमी को अपने अंदर समा सकें
और धरती की प्यास बुझा सके उसे पोषित कर सके
पड़ गई है दरारें अब इन राहों पर
कोई बड़ा वृक्ष नहीं जिसकी बड़ी- बड़ी
विशालकाय जड़े धरती पर
नमी को अपने अंदर समा सकें
और धरती की प्यास बुझा सके उसे पोषित कर सके
*उजाले की ओर......
संध्या का आना
देवालयों में दियों
की लौ का जगमागाना
घंटा ध्वनि और शंखनाद की गूंज
प्रार्थनाओं के स्वर
करते मन को पवित्र
आंगन ,मोहल्ले ,चौराहे
सभी उजाले से जगमगाए
मेरे मन का दीप अभी भी बुझा था
उसमे ना कोई आस बची थी
आशा का ना तेल कभी डला था
ना विश्वास की डोर बची थी
मेरे सूने मन का कैसे दीप जलाऊं
कैसे निराशा में आशा की किरण लाऊं
आखिर फिर एक बार उम्मीद का दिया जलाया
उसे नकारात्मक विचारों के भंवर से बचाया
तूफ़ान तो बहुत आया,
आंधियों ने मेरा हौंसला बहुत आजमाया ,
पर इस बार ना मैंने उम्मीद के
दिए को बुझने दिया अब जाकर
कहीं मेरे मन का अंधेरा दूर हो पाया
सकारात्मक विचारों का जब उजियारा फैलाया।
देवालयों में दियों
की लौ का जगमागाना
घंटा ध्वनि और शंखनाद की गूंज
प्रार्थनाओं के स्वर
करते मन को पवित्र
आंगन ,मोहल्ले ,चौराहे
सभी उजाले से जगमगाए
मेरे मन का दीप अभी भी बुझा था
उसमे ना कोई आस बची थी
आशा का ना तेल कभी डला था
ना विश्वास की डोर बची थी
मेरे सूने मन का कैसे दीप जलाऊं
कैसे निराशा में आशा की किरण लाऊं
आखिर फिर एक बार उम्मीद का दिया जलाया
उसे नकारात्मक विचारों के भंवर से बचाया
तूफ़ान तो बहुत आया,
आंधियों ने मेरा हौंसला बहुत आजमाया ,
पर इस बार ना मैंने उम्मीद के
दिए को बुझने दिया अब जाकर
कहीं मेरे मन का अंधेरा दूर हो पाया
सकारात्मक विचारों का जब उजियारा फैलाया।
गर्मी, गर्मी, गर्मी.....
गर्मी, गर्मी, गर्मी
क्या इस बार कुछ विशेष है कि इस बार गर्मी अधिक पड़ रही है बताइए?
नहीं बता सकते ना, जानते आप सब हैं इस सब का कारण हम मनुष्य ही हैं जंगलों का कटान वृक्षों का कम होना ऊंची ऊंची इमारतें फिर अप्राकृतिक साधनों का अधिक से अधिक उपयोग करना यातायात के लिए अत्याधिक वाहनों का होना फिर उन से निकलती जहरीली गैसों का वायु मंडल में फैलना आप बताओ वायु प्रदूषण तो स्वयं ही हुआ ना तापमान का बढ़ना भी स्वाभाविक है
क्या परमात्मा ने इस बार गर्मी बढ़ा दी है
तापमान इतना क्यों बढ़ गया है हे भगवान, इटनी गर्मी क्यों हो रही है ।
अब बताओ क्या इसका भी कारण भगवान हैं।
अरे नहीं भगवान ने तो धरती बनाई सूरज चांद सितारे यथावत अपने अपने कार्यों में संलग्न है ।
क्या सूर्य का तापमान बढ़ गया है
जी नहीं दोषी तो हम मानव ही हैं हमारे ही कर्मों का फल है तापमान में इतनी वृद्धि पिघलते ग्लेशियर ओजोन परत में छिद्र प्रदूषण इन सब का कारण हम मनुष्य ही हैं हम मनुष्य का स्वार्थवाद..
मनुष्य आगे बढ़ने की होड़ में सिर्फ भागता चला जा रहा है बस आगे बढ़ना है होड़ लगी है उसके लिए चाहे कोई भी और कैसा भी उपाय करना पड़े चाहे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारना पड़े।
और हो भी रहा है मनुष्य स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है अपने ही वातावरण को जिसमें वह स्वयं रहता है उसी वायु को दूषित कर रहा है यातायात के साधनों का अधिकतम से अधिकतम उपयोग कर आज मनुष्य स्वयं को महारथी समझ रहा है इसके परिणाम को जानते हुए भी नहीं जानना चाह रहा है,
बस दिखावे की जिंदगी जी रहा है आज का मानव
वायु प्रदूषण तापमान में तेजी , ए मनुष्य तुम्हें किसी को भला- बुरा कहने का हक नहीं है किसी भी परिवर्तन का मुख्य कारण तुम स्वयं ही हो अगर तुम चाहते हो यह धरती फिर से पहले जैसी हो जाए तो अधिक से अधिक वृक्षों का रोपण करो ।
लग्जरी संसाधनों का कम से कम उपयोग करो अपनी शान शौकत दिखाने के लिए महंगी गाड़ियों के उपयोग पर लो रोक लगाओ जब धरती ही तुम्हारे रहने लायक नहीं रहेंगे तो बताओ यह शानो शौकत किस काम की होगी।
पहले धरती को यानी धरती मां को सुरक्षित करो ऐसे संसाधन जिससे तुम्हारी धरती मां को जिस में तुम रहते हो जिसमें तुम्हारे आशियाने हैं उसे सुंदर बनाओ।
उसका दुरुपयोग नहीं करो फिर देखो धरती भी तुम्हें स्वर्ग जैसी लगेगी
क्या इस बार कुछ विशेष है कि इस बार गर्मी अधिक पड़ रही है बताइए?
नहीं बता सकते ना, जानते आप सब हैं इस सब का कारण हम मनुष्य ही हैं जंगलों का कटान वृक्षों का कम होना ऊंची ऊंची इमारतें फिर अप्राकृतिक साधनों का अधिक से अधिक उपयोग करना यातायात के लिए अत्याधिक वाहनों का होना फिर उन से निकलती जहरीली गैसों का वायु मंडल में फैलना आप बताओ वायु प्रदूषण तो स्वयं ही हुआ ना तापमान का बढ़ना भी स्वाभाविक है
क्या परमात्मा ने इस बार गर्मी बढ़ा दी है
तापमान इतना क्यों बढ़ गया है हे भगवान, इटनी गर्मी क्यों हो रही है ।
अब बताओ क्या इसका भी कारण भगवान हैं।
अरे नहीं भगवान ने तो धरती बनाई सूरज चांद सितारे यथावत अपने अपने कार्यों में संलग्न है ।
क्या सूर्य का तापमान बढ़ गया है
जी नहीं दोषी तो हम मानव ही हैं हमारे ही कर्मों का फल है तापमान में इतनी वृद्धि पिघलते ग्लेशियर ओजोन परत में छिद्र प्रदूषण इन सब का कारण हम मनुष्य ही हैं हम मनुष्य का स्वार्थवाद..
मनुष्य आगे बढ़ने की होड़ में सिर्फ भागता चला जा रहा है बस आगे बढ़ना है होड़ लगी है उसके लिए चाहे कोई भी और कैसा भी उपाय करना पड़े चाहे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारना पड़े।
और हो भी रहा है मनुष्य स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है अपने ही वातावरण को जिसमें वह स्वयं रहता है उसी वायु को दूषित कर रहा है यातायात के साधनों का अधिकतम से अधिकतम उपयोग कर आज मनुष्य स्वयं को महारथी समझ रहा है इसके परिणाम को जानते हुए भी नहीं जानना चाह रहा है,
बस दिखावे की जिंदगी जी रहा है आज का मानव
वायु प्रदूषण तापमान में तेजी , ए मनुष्य तुम्हें किसी को भला- बुरा कहने का हक नहीं है किसी भी परिवर्तन का मुख्य कारण तुम स्वयं ही हो अगर तुम चाहते हो यह धरती फिर से पहले जैसी हो जाए तो अधिक से अधिक वृक्षों का रोपण करो ।
लग्जरी संसाधनों का कम से कम उपयोग करो अपनी शान शौकत दिखाने के लिए महंगी गाड़ियों के उपयोग पर लो रोक लगाओ जब धरती ही तुम्हारे रहने लायक नहीं रहेंगे तो बताओ यह शानो शौकत किस काम की होगी।
पहले धरती को यानी धरती मां को सुरक्षित करो ऐसे संसाधन जिससे तुम्हारी धरती मां को जिस में तुम रहते हो जिसमें तुम्हारे आशियाने हैं उसे सुंदर बनाओ।
उसका दुरुपयोग नहीं करो फिर देखो धरती भी तुम्हें स्वर्ग जैसी लगेगी
*विस्मृत बोध *
*विस्मृत बोध
उलझते उद्वेग
विचार शून्य विवेक
हाय!मनुष्य क्या हो
गया तुझे, उलझ बैठा है
तू करके अपनों से द्वेष
तू तो फरिश्ता ए आसमान है
तुम तो दिव्य शक्तियों की खान हो *
*आरम्भ का सत्य अव्यक्त
आरम्भ ही शाश्वत सत्य
आरम्भ से अंत तक का सफ़र
सफ़र का दौर ,जीवन की दौड़
विहंगम,अतुलित, अकल्पनीय
तेज़ का प्रताप
अद्वितीय शक्तियों के पुंज
व्याप्त कुंज-कुंज
मनुष्य जीवन का आगाज़
परमाणु से उपजा अणु
या यूं कहिए अणुओं से बना परमाणु
मनुष्य एक सुन्दर कृति
उस पर विचारों की धृति
भावनाओं का अथाह सागर
मनुष्य स्वयं में सशक्त
भावों के चक्रव्यूह में फंसा
बन बैठा अशक्त
प्रतिस्पर्धा की दौड़
की लगी होड़
लगा बैठा रोग
बन बैठाअध्रंग**
उलझते उद्वेग
विचार शून्य विवेक
हाय!मनुष्य क्या हो
गया तुझे, उलझ बैठा है
तू करके अपनों से द्वेष
तू तो फरिश्ता ए आसमान है
तुम तो दिव्य शक्तियों की खान हो *
*आरम्भ का सत्य अव्यक्त
आरम्भ ही शाश्वत सत्य
आरम्भ से अंत तक का सफ़र
सफ़र का दौर ,जीवन की दौड़
विहंगम,अतुलित, अकल्पनीय
तेज़ का प्रताप
अद्वितीय शक्तियों के पुंज
व्याप्त कुंज-कुंज
मनुष्य जीवन का आगाज़
परमाणु से उपजा अणु
या यूं कहिए अणुओं से बना परमाणु
मनुष्य एक सुन्दर कृति
उस पर विचारों की धृति
भावनाओं का अथाह सागर
मनुष्य स्वयं में सशक्त
भावों के चक्रव्यूह में फंसा
बन बैठा अशक्त
प्रतिस्पर्धा की दौड़
की लगी होड़
लगा बैठा रोग
बन बैठाअध्रंग**
** इंतज़ार में उसकी**
हिय में तरंगों के साज बज रहें हैं
इबादत है जिसकी
इंतज़ार में उसकी
मुखड़े पर खुशियों के
गुलाब खिल रहे हैं
बागवान सज रहे
पुष्पों के पायदानों को
खुशियों के नीर सींच रहे हैं
चक्षुओंं के दो पैमानों में
नीर का दरिया थामें
समुंदर के रत्नों
से शामियानें सजे हैं
दृष्टि से सृष्टि में
जुगनुओं की झालरें
झिलमिला रही हैं
पलकों में सपनों के
ख़्वाब लिए
नयनों के चिरागों
को रोशन किये
उनके आने के इंतजार में
जमीन से फ़लक तक सितारों
की सौगात लिये बैठा हूं
मैं अपने ख़ुदा की इबादत में
नयनों के चिराग जलाए बैठा हूं
पलकों के किवाड़ भी बंद नहीं होने
दे रहा , मैं टकटकी लगाये
दीदार में उसकी नयनों के
पायदान बिछाये बैठा हूं ।
इबादत है जिसकी
इंतज़ार में उसकी
मुखड़े पर खुशियों के
गुलाब खिल रहे हैं
बागवान सज रहे
पुष्पों के पायदानों को
खुशियों के नीर सींच रहे हैं
चक्षुओंं के दो पैमानों में
नीर का दरिया थामें
समुंदर के रत्नों
से शामियानें सजे हैं
दृष्टि से सृष्टि में
जुगनुओं की झालरें
झिलमिला रही हैं
पलकों में सपनों के
ख़्वाब लिए
नयनों के चिरागों
को रोशन किये
उनके आने के इंतजार में
जमीन से फ़लक तक सितारों
की सौगात लिये बैठा हूं
मैं अपने ख़ुदा की इबादत में
नयनों के चिराग जलाए बैठा हूं
पलकों के किवाड़ भी बंद नहीं होने
दे रहा , मैं टकटकी लगाये
दीदार में उसकी नयनों के
पायदान बिछाये बैठा हूं ।
* धुंध *
प्रकृति में सौंदर्य की
पवित्रता जो हमने देखी
उसका सम्पूर्ण चित्रण करना
इतना सरल नहीं है
फिर भी...
अद्भुत अलौकिक प्रकृति
का रमणीय नज़ारा
दिनकर के प्रकाश से प्रकाशित
जग सारा
पल में आया कोहरे का साया
और फिर "छाया"
ये मौसम भी दिल को भाया
फ़िर एक और सुन्दर नज़ारा
शायराना मौसम में शायराना आलम सारा
मौसम की मस्तियां
तो देखो
हसीन वादियों में कोहरे का पहरा
तो देखो
श्वेत मखमली महीन रूई की
सी उड़ती धुंध
दृष्टि के सामने हसीन दृश्य
पल में ही सब धुंध में गुम
नन्हीं जल की बूंदे
कोहरे की चादर बन फैले इधर-उधर
वाह धुंध में पल -पल में सब होते गुम
कभी दिखते कभी हो जाते गुम
जिन्दगी भी एक धुंध बस धुंध ही धुंध.....
पवित्रता जो हमने देखी
उसका सम्पूर्ण चित्रण करना
इतना सरल नहीं है
फिर भी...
अद्भुत अलौकिक प्रकृति
का रमणीय नज़ारा
दिनकर के प्रकाश से प्रकाशित
जग सारा
पल में आया कोहरे का साया
और फिर "छाया"
ये मौसम भी दिल को भाया
फ़िर एक और सुन्दर नज़ारा
शायराना मौसम में शायराना आलम सारा
मौसम की मस्तियां
तो देखो
हसीन वादियों में कोहरे का पहरा
तो देखो
श्वेत मखमली महीन रूई की
सी उड़ती धुंध
दृष्टि के सामने हसीन दृश्य
पल में ही सब धुंध में गुम
नन्हीं जल की बूंदे
कोहरे की चादर बन फैले इधर-उधर
वाह धुंध में पल -पल में सब होते गुम
कभी दिखते कभी हो जाते गुम
जिन्दगी भी एक धुंध बस धुंध ही धुंध.....
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