मां तुम कैसे हो

 माँ  के  बिन उदास है दिल मां कभी तो आ कर मुझसे मिल
आंख भर आती है
जब कानों में मां -मां आवाज आती है
दिल तड़फ उठता है
एक आह निकलती है
दिल की पीर दिल में ही
दफ़न हो जाती है
मां तू कैसी होती है
सुना है तुम फरिश्ता ए आसमान होती हो
मां मैं भी तो किसी मां का ही लाल हूं
मां मैं भी छोटा था क्यों मेरी उंगली पकड़ने
के चलने के दिनों में मुझे अकेला छोड़ गई
तुझे मुझ पर तरस भी नहीं आया मैं गिरता संभलता
मां -मां करता आज बड़ा हो गया हूं
फिर याद आती हो तुम मां
 मैं जानता हूं तुम्हारी भी कोई मजबूरी होगी
तुममें मेरी जान पूरी होगी
तुम जहां होगी वहां भी कहां चैन से होगी
अब अगले जन्म में मिलेगी ना जब मां तब
मेरा हाथ ना छोड़ना मेरा साथ ना छोड़ना
अगर तुम्हें जाना पड़े दूर मुझको भी संग अपने ले चलना तेरे बिन मां बड़ा मुश्किल है दुनियां में जीना
तेरे संग संग है मुझे रहना तेरे बिन नहीं दुनियां की महफ़िल में रहना नहीं मुझे भाता
तुझ संग झोपड़ी भी राजमहल लगेगी
मां तुम साथ रहोगी तो दुनिया जन्नत लगेगी।





संतुष्ट हूं,हर्षित हूं, गर्ववानवित हूं ,आत्मसम्मान से भरपूर हूं
आज लिखने को खुला आसमान है ,पड़ने को सारा जहां ...आज जब स्वयं को देखता हूं
लिखते -लिखते कितने आगे निकल आया हूं
आत्मसम्मान से भरपूर हूं, आज मेरे साथ इतना बढ़ा कारवां है
में लिख रहा हूं लोग पड़ रहे हैं
अपनी राय दे रहे हैं जब मैंने लिखना शुरू किया था
तब कोई पड़ने वाला नहीं था
मैं में एक आस थी
मुझे लिखना था अपने लिए समाज के लिए
आज में लिख रहा हूं लोग पड़ रहे हैं
संतुष्ट हूं हर्षित हूं गर्वान्वित हूं,आत्मसम्मान
से भरपूर हूं ।

*लक्ष्य *

विचारों में पवित्रता
वाणी में नम्रता
स्वभाव में सौम्यता
कर्मों में श्रेष्ठता और सत्यता
हो तो सफलता निश्चित होती है
ना किसी से ईर्ष्या ,ना द्वेष
ना किसी से प्रतिस्पर्धा
मंजिल की ओर बढते क़दम
राह में चाहे बधायें हो अनेक
नदिया के बहाव की तरह
अपनी राहें बनता चल
तू थकना ना मुसाफ़िर
निगाहों में रख तेरी मंजिल का
रास्ता देख .....
निराशा,हताशा तेरी राह के रोड़े बन
तुझे करेंगे निरुत्साहित इन रोड़ों
से मत घबराना ,मंजिल की ओर बढते जाना
प्रतिस्पर्धा कर स्वयं से
हर दिन एक नया क़दम अग्रसरता की ओर
आत्म केंद्रित हो अपना केंद्रबिंदु रख लक्ष्य की ओर.....

चंद्रमा ,चांदनी और सरिता

चन्द्रमा ,चांदनी और सरिता 
एक कवि का मन रचने लगा कविता 
दिव्य अलौकिक प्रकृति की रचना
मेरे शब्दों में ना समा पाए ए प्रकृति
तेरी सहज ,निर्मल ,अद्वितीय सुंदरता 
गंगा की अमृत मयी जलधारा
चन्द्रमा की चांदनी में चांदी सा 
चमचमाती गंगा की  निर्मल अमिय जलधारा 
वाह प्रकृति का सुन्दर मिलन अद्भुत ,अतुलनीय 
अलौकिक अकल्पनीय ।



प्रकृति ने स्वयं के श्रृंगार की भी
क्या खूब अनुपम व्यवस्था की है
रंग-बिरंगे पुष्पों से धरती मां का
आंचल भर दिया है ,मानों धरती मां को
रंग बिरंगे पुष्पों वाली चुनरिया ही उड़ा दी हो
गुलाब, चंपा ,चमेली गेंदा आदि अनेक पुष्पों की
सुगंधी ,वाह इत्र की भी पूर्ण व्यवस्था
वृक्षों की लताएं मानों जुल्फें बनकर लहरा रही हों
फलों से लदे वृक्ष मानों बूटी वाली झालर
पक्षियों की सुमधुर कुंके कानों में रस घोलती
अनगिनत वाद्य साधनों की प्राकृतिक
सौम्य सुमधुर धुन
मन मोहिनी कोयल की मीठी बोली वाह क्या
मानों प्रकृति ने अपने संगीत की भी पूर्ण
व्यवस्था की हो
बहुत खूब हैं प्रकृति तेरे भी गुण
क्या खूब किया है तुमने
धरती मां का श्रंगार
सौम्य चंचल ,मनमोहनी प्रकृति तेरे रूप को देख मैंने तेरा नाम रख दिया मनमोहनी



तकदीर



सजदा


आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...