जन-जन के प्यारे श्री कृष्ण

कहते है ना जब जब धर्म की हानि होती है पाप और अत्याचार अत्यधिक बढ़ जाता है ,तब -तबध अधर्म का  अंत करने के लिए ,परमात्मा स्वयं धरा पर जनम लेते हैं ।
 हम लोग भाद्रपद में कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन श्री कृष्ण के जन्म दिवस के रूप में ,बड़े धूम धाम से मानते हैं ,जगह -जगह मंदिर सजाये जातें हैं ,श्री कृष्ण की लीलाओं की सूंदर -सूंदर झांकियाँ सजायी जाती हैं ,हम श्री कृष्ण की लीलाओं का स्मरण करते हैं ,प्रेरणा लेते है । आप लोग क्या सोचतें हैं की भगवान धरती पर आये और पापियो को मारा।  ..... ।नहीं भगवान् को भी एक साधारण मानव की तरह इस धरती पर जन्म लेना पड़ता है ,भगवान् राम को भी अपनी जीवन काल में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था ।
चाहते तो कृष्ण धरती पर आते कंस का वध करते और धरती को पाप मुक्त करा देते ,नहीं पर ये इतना आसान नहीं था ,भगवान भी जब धरती पर जन्म लेते हैं ,तो उन्हें भी साधारण मानव की तरह जन्म लेना पड़ता है ,मानव जीवन की कई यातनाएँ उन्हें भी साहनी पड़ती हैं ,कृष्ण का जन्म कारावास में हुआ ,जन्म देने वाली माँ देवकी ,नंदगाँव में माँ यशोदा की ममता की छांव मिली , बारह वर्ष ग्वाले का जीवन बिताया ,माखन चोर ,के नाम से.जाने गए अरे वो तो भगवान थे ,उन्हें माखन चुराने की क्या आव्यशकता थी  । प्रेम वश् गायोँ के ग्वाले गोपियों के गोपाल कहलाये  श्री कृष्ण की लीलाओं में बस इतना फर्क था की उनकी लीलाओं में कोई कपट नहीं था स्वार्थ नहीं था ,उनका प्रत्येक प्राणी.के प्रति समभाव था । चाहते तो  कृष्ण अपने सुदर्शन चक्र से एक ही बार में पापी कंस का वध कर देते ,नहीं पर श्री कृष्ण ने ऐसा नहीं किया,क्योंकि उन्होंने आने वाले समाज को प्रेरणा और सीख दी की धरती पर रहते हुए एक साधारण मानव  भी अपने शुभ कर्मो के आत्मबल  की शक्ति की युक्ति से चाहे जो भी वो कर सकता है ,चाहे तो वह धरती को स्वर्ग बना सकता है ,चाहे नरक ,परमात्मा ने ये धरती मानवों के लिए बनाई है मानव चाहे अपने कर्मो द्वारा धरती को स्वर्ग बना सकता है या .....जैसा चाहे ......श्री कृष्ण जन-जन के प्यारे उनका माखन चुराना भी सबको प्रिय लगता था ,क्योंकि वह निष्कपट थे ,क्योंकि उन्होंने सिर्फ प्रेम का ही सन्देश दिया चाहे वह ग्वालों केरूप में गायों के प्रति था,या फिर गोपियों ,सोलह हज़ार रानियाँ , श्री कृष्ण के सुरक्षा  कवच में सब  सुरक्षित थे ।

"शिक्षक का स्थान सबसे ऊँचा"

आदरणीय, पूजनीय ,
               सर्वप्रथम ,  शिक्षक का स्थान  समाज में सबसे ऊँचा
               शिक्षक समाज का पथ प्रदर्शक ,रीढ़ की हड्डी
               शिक्षक समाज सुधारक ,शिक्षक मानो समाज.की नीव
               शिक्षक भेद भाव से उपर उठकर सबको सामान शिक्षा देता है ।
               शिक्षक की प्रेरक कहानियाँ ,प्रसंग कहावते बन विद्यार्थियों के लिए
               प्रेरणा स्रोत ,अज्ञान का अन्धकार दूर कर ,ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं,
                तब समाज प्रगर्ति की सीढ़ियाँ चढ़ उन्नति के शिखर पर पहुंचता है,
             
              जब प्रकाश की किरणे चहुँ और फैलती हैँ ,
              तब समाज का उद्धार होता है ,
              बिन शिक्षक सब कुछ निर्रथक, भरष्ट ,निर्जीव ,पशु सामान ।
             
              शिक्षक की भूमिका सर्वश्रेष्ठ ,सर्वोत्तम ,
              नव ,नूतन ,नवीन निर्माता सुव्यवस्तिथ, सुसंस्कृत ,समाज संस्थापक,
              बाल्यकाल में मात ,पिता शिक्षक,  शिक्षक बिना सब निरर्थक सब व्यर्थ
           
              शिक्षक नए -नए अंकुरों में शुभ संस्कारों ,शिष्टाचार व् तकनीकी ज्ञान
               की खाद डालकर सुसंस्कृत सभ्य समाज की स्थापना करता है ।

अमर प्रेम की पवित्र डोर

 रक्षा बंधन का पर्व ,
      भाई बहन का गर्व ,
 निश्छल पवित्र प्रेम का अमर रिश्ता
बहन भाई की कलाई में राखी.बांधते हुए कहती है, 
भाई ये जो राखी है ,ये कोई साधारण सूत्र नही ,
इस राखी में मैंने स्वच्छ पवित्र प्रेम के मोती पिरोये हैं ,
सुनहरी चमकीली इस रेशम की डोर में ,
भैया तुम्हारे  उज्जवल भविष्य की मंगल कामनाएं पिरोयी है ।
रोली ,चावल ,मीठा ,लड़कपन की वो शरारतें ,
हँसते खेलते बीतती थी दिन और रातें 
सबसे प्यारा सबसे मीठा तेरा मेरा रिश्ता 
भाई बहन के प्रेम का अमर रिश्ता कुछ खट्टा कुछ मीठा ,
सबसे अनमोल मेरा भैय्या,           
कभी तुम बन जाते हो मेरे सखा , 
और कभी बड़े  भैय्या ,  भैय्या मै जानती हूँ ,तुम बनते हो अनजान 
पर मेरे सुखी जीवन की हर पल करते हो प्रार्थना।
 भैय्या मै न चाहूँ ,तुम तो मुझको दो सोना ,चांदी ,और रुपया 
दिन रात तरक्की करे मेरा भैय्या ,
ऊँचाइयों के शिखर को छुए मेरा भैय्या 
रक्षा बंधन  की सुनहरी चमकीली राख़ियाँ 
सूरज ,चाँद सितारे भी मानो उतारें है आरतियाँ 
काश कभी हम भी किसी के भाई बने,    और कोई बहन हमें भी बांधे राखी 
 थोड़ा इतरा कर हम भी दिखाएँ कलाई देखो इन हाथों में भी है राखी

सत्यम शिवम् सुंदरम्

वतन की मिट्टी से जब शहीदों के शौर्य की खुशबु आती है ,
            आँख नाम हो जाती है ,जुबाँ गुनगुनाती है ,
वन्दे मातरम् ,वंदे मातरम्   ,सारे जाहाँ से अच्छा दिन्दुस्तान हमारा ,
माँ सी ममता मिलती है ,रोम रोम प्रफुल्लित हो जाता
            जब  भारत  को भारत माँ  कह के बुलाता हूँ
भिभिन्न परम्परा में रंगा हुआ हूँ ,पर जब जब देश पर विपत्ति आती
                 एक रंग में रंग जाता हूँ ,
हिंदुत्व की पहचान ,हिंदी हमारी मात्र भाषा ,हिंदी में जो बिंदी है,
वह भारत माता के माथे का श्रृंगार,बिंदी की परम्परा वाला मेरे देश की
विशव में है विशिष्ट पहचान ,प्रगर्ति की सीढ़ियाँ चढ़ता
           उन्नति के शिखर को छूता, मेरा भारत महान
भारत माँ की छाती चौड़ी हो जाती ,जब शून्य डिग्री पर
खड़े सिपाही बन देश का रक्षा प्रहरी भारत माँ की खातिर
मर मिटने को अपने प्राणों की बलि चढ़ाये
नाज है, मुझे सवयं पर जो मैंने भारत की धरती पर जन्म लिया
जीवन मेरा सफल  होगा ,हिदुस्तान में फिर से राम राज्य.होगा
हिदुस्तान फिर से सोने की चिड़िया कहलायेगा।
इतना पावन है ,देश मेरा यहां नदियों में अमृत.बहता है ,
इंसान तो क्या पत्थर भी पूजा जाता है ।

रंग मंच

कारण  तो बहुत  हैं , शिकवे  शिकायतें करने  के 
 मगर  जब  से हमने हर  मौसम  में लुत्फ़ लेना सीख  लिया ,
जिंदगी के सब शिकवे बेकार हो गए ।
ज़िन्दगी  तो  बस एक नाटक  है , दुनियाँ के  रंगमंच में हमें अपने किरदार को बखूबी निभाना है ।
फिर क्यों रो _रो कर दुखी होकर गुजारें जिंदगी 
जीवन के हर किरदार  का  अपना एक अलग अंदाज़ है क्यों अपना-अपना किदार बखूबी निभा लें हम 
इस नाटक की एक विशेष बात है , क़ि हमने जो परमात्मा से मस्तिक्ष की निधि  पायी है ,
बस उस निधि का उपयोग  ,करने की जो छूट है ,उससे  हमें खुद के रास्ते बनाने होते हैं 
हमारी समझ हमारी राहें निशिचित करती हैं ,
परिश्रम ,निष्ठा, और निस्वार्थ कर्मों का मिश्रण जब होता है,
तब मानव  अपने किरदार में सूंदर रंग भारत है,और तरक्की की सीढियाँ चढ़ता है ,
भाग्य  को कोसने वाले अभागे होते हैं ,
वह अपने किदार में शुभ  कर्मों का पवित्र रंग तो भरते नहीं ,
फिर भाग्य को कोसते हैं , और परमात्मा को दोषी ठहराते हैं 

      ठंडी -ठंडी छाँव  "माँ"

फरिश्तों के जहां से , वातसल्य कि सुनहरी चुनरियाँ ओढे ,
सुन्दर, सजीली ,मीठी ,रसीली ,
दिव्य आलौकिक प्रेम से प्रका शित ममता की देवी  'माँ '
परस्पर प्रेम ज्ञान के दीपक जला ती रहती। 
ममत्व की सुगन्ध कि निर्मल प्रवाह धारा 
 प्रेम के सुन्दर रंगो से दुनियाँ सजाती रहती 
समर्पित पूर्ण रूपेण समर्पित '

  ममता की ठंडी -ठंडी छाँव देने को ,
पवित्र गंगा की  धारा बन ,अवगुण सारे बहा ले जाती। 
निरंतर बहती रहती ,बच्चों कि जिंदग़ी सवांरने मे स्वयँ को भूल 
जीवन बिता देती ,          
 दर्द मे दवा ,बन  मुसकराती  रहती। 
बिन कहे दिल कि कर जाती 
जाने उसे कहाँ से आवाज़ आती ,
सभी बड़े -बड़े पदों पर बैठे जनों कि जननीं है, जननीं कि कुर्बानी। 
पर उसके दिल कि किसी ने नहीं जानी ,
वही  है ,दुर्गा , वही है लक्ष्मी ,सरस्वतीं ,काली  
दुनियाँ  सारी उसी से ,
यही तो है ,  दिव्य ,अलौकिक  जननीं कि निशानी 
बड़ी विचित्र ,है'' माँ ''  के दिल कि कहानी।

  ''   परियों वाली ऑन्टी ''

उस नन्हें बच्चे कि रोने कि आवाज़ें मानो कानोँ को चीर रही  थीं। दिल में एक गहरी चोट कर रही थी। बहुत सोचा दिल नहीं माना .  मैंने आख़िर दरवाजा खोलकर देख ही  लिया।
देखा तो दिल पहले से भी  अधिक दुः खी हो गया ,पांच साल कि नन्ही बच्ची दो साल के अपने छोटे भाई को लिये घर के बाहर बैठे थी और  अपने भाई  को सँभाल रही  थीं।  कई तरह के यत्न कर रही थी कि उसका भाई किसी तरह रोंना  बन्द कर दे। पर शायद वो भूखा था।  वो बहिन जो सवयं की देख -रेख भी ढंग से नही  कर सकती थी  वह  बहिन अपने भाई  को बड़े  यत्न से सँभाल रही थीं बहिन का फर्ज निभा रही थी।
बहुत पीड़ा हो रही थी उन बच्चों को देखकर ,शायद पेट कि क्षुधा को शान्त करने के लिये वह लड़की अपने भाई  को लेकर कभी किसी के घर के आगे बैठती कभी किसी के -----शायद कहीं से कुछ को खाने को मिल जाएं आखिर मेरे मन कि ममता ने मुझे धिक्करा मै जल्दि  से उन बच्चोँ के खा ने के लिये कुछ ले आई , लड़की ने तो झट से रोटी और सब्जी खा ली ,  परंतू भाई अभी भी  रो रहा था ,वह छोटा था ,मैने उसके भाई के लिये कुछ बिस्कीट खाने को दिये फ़िर जाकर वह बच्चा शान्त हुआ।
मेरे पूछने पर कि वो कहाँ रहती है उसके माँ -बाप कहाँ  हैं ,वह बच्ची बोळी वो पडोस मे एक नई बिल्डिंग बन रही है न मेरी मा तो वहाँ मज़दूरी करती  है,  थक जाती है ना इस लिये भाई को ढूध नहि पिला पाती ---
मै  हैरान थी कि इतनी छोटी सी उम्र मे कितना समझदार बना दिया है वक़्त ने इस बच्ची को , माइन पूछा पिता जी कहाँ है तो बोली पिताजी तो घर पर ही रहते हैं  माँ और हम जब शाम को घर जाते हैं तो मा ख़ाना बनती है पिताज़ी  झगड़ा करते रहते हैं मेरे पिताजी हमारे साथ खेलते भी नहीं ,जब ख़ाना बन जाता है तब हम सब खान खाते हैँ और ,फ़िर पितजी मा से झगड़ा करती हैं कुछ पैसे  लेते है ,फ़िर कही  बाहर  चले जाते हैँ ,फ़िर थोड़ी देर बाद आते हैं और ठीक से चल भी  नही  पा रहे होते हैं गिरते -गिरते लुढ़कते -लुढ़कते घर पहुँचते हैं फ़िर खटिया पर गिरते हैं और सो जाते हैं।
वह लड़की बड़े दर्द  भरी आवा ज मे बॉली ऑन्टी ह्मारे पितजी ऐसे क्योँ है सबके तो ऐसे नहीं होते ,ऑन्टी मेरा भी स्कूल जाने क मन करता है पर मै क्या करूँ ,,पता नही  हम स्कुल जा भी  पायेंगे या नही ,मैने ने उस बचची के सिर पर हाथ फेरते हुए  कहा जरूर कल से हि तुम स्कुल जाऊगी  तुम्हारे पिताजी भी ठीक हो जाएंगे हम उनको दवा देंगे। ----वो बच्ची मेरे  गले लग गयी  ,खुश होते हुए बोली सच ऑन्टी आप तो परियों वाली आन्टी हो।
मेरे पास शब्द नही थे --बच्ची के गाल पर फेरते हुए मानो मैने उसके दर्द को दूं  र  करने की शपथ ले ली थी कि आज से ये बच्ची हमेशा  मुस्कराती  रहेगी। पड़ लिखकर  आगे बढ़ेगी ---------

आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...