*जीवन की पतवार*

भागती-दौड़ती जिन्दगी की रफ्तार
ढील देता पतवार
क्षीण तार लहूलुहान
सम्भल जा मानव.....
तन के पिंजरे में
कैद सांसों के
जोड़ की तार
हृदय प्राणवायु
की पतवार ......
अस्तित्व था मेरा
समुन्दर
लहरों संग बाहर
आ निकला बूंद बनकर
जा बैठा कोमल
कपोलों के गुलाबों पर
इतराया खूब शबाब पर
देखकर सुन्दर ख्वाब मैं
जैसे सीप में मोती
नयनों में ज्योति
पुष्पों में ओस .....
अनामिका से उठाकर
फेंका मुझे इस कदर
मैं बूंद से फिर हो गई समुंदर
बूंद -बूंद एकत्र होकर माना की
मैं बनी समुंदर .....
बूंद की पतवार है समुंदर
समुंदर का जीवन है बूंदों के अंदर
तन के पिंजरे में कैद
सांसों की तार
हृदय प्राणवायु की पतवार ......














8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!!!
    बहुत ही सुन्दर सार्थक लाजवाब सृजन
    अनामिका से उठाकर
    फेंका मुझे इस कदर
    मैं बूंद से फिर हो गई समुंदर
    बूंद -बूंद एकत्र होकर माना की
    मैं बनी समुंदर .....
    बूंद की पतवार है समुंदर
    समुंदर का जीवन है बूंदों के अंदर

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  2. जीवन की पतवार ऊपर वाले के हाथ, वह घुमाता जिधर जाता, इंसान जाता उधर
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  3. यशोदा जी नमन एवं आभार मेरे द्वारा सृजित रचना को पांच लाख लिंक के आनंद में समलित्त करने के लिए

    जवाब देंहटाएं

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