*इंसानियत के चिराग*

निस्वार्थ मोहब्बत का
पुजारी हूं इस दुनियां
में इंसानियत का चिराग
लेकर घूम रहा हूं
घोर अन्धकार में दिया
जला देता हूं
मैं नौसिखिया वीणा के तारों
में इंसानियत
का राग सजा देता हूं ।

ढूंढ रहा हूं
इधर-उधर
नहीं मिल रही कहीं मगर
फिर रहा हूं डगर-डगर
नगर -नगर
व्यर्थ हो गया,
मेरे जीवन का सफर,
इंसान तो मिले बहुत मगर
इंसानियत ना मिली मुझे
मैं हारा थककर
स्वार्थ का बोलबाला था
मैं तो राही मतवाला था
परस्पर प्रेम के बीज मैं
स्वार्थ की बंजर भूमि में बो आया आने वाले कल को

मोहब्बत की फसलें दे आया *

इंसानियत के चिराग जला आया हूं 

4 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद मर्मस्पर्शी रचना, सादर नमस्कार

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  2. बहुत बहुत सुंदर सटीक हम ढ़ूढते रहे इंसानों कि भीड़ मिली पर इंसानियत नदारद थी।. .
    वाह्ह्ह

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