निकला जाता हूं अक्सर
घर से कहीं दूर दिल को बहलाने को
कुछ पल सूकून के पाने को
दुनिया भर के झंझटों से आजाद हो जाने को
बेफिक्र परिंदा बन आकाश की
ऊंचाइयों में उड़ जाने को ...
शाम होते ही लौट आता हूं अपने
आशियाने को, सादे भोजन से तृप्ति पाता हूं
रख कर सिर लुढ़क जाता हूं खटिया पर रखे सिरहाने पर
शायद भटक -भटक कर थक जाता हूं
और समझ जाता हूं अपने आशियाने और
अपनों के जैसा अपनत्व कहीं नहीं जमाने में
लाखों की भीड़ है ज़माने में बहुत कुछ आकर्षक
है देखने को दिल बहलाने को
किन्तु अपनों के जैसा अपनत्व नहीं जमाने में
मुझे मेरे अपने मिलते हैं मेरे आशियाने में
खट्टी मीठी एहसास कराने को संरक्षण पाने को ।