*दोहे संस्कृति और सभ्यता*

*भारतीय संस्कृति
का घोर पतन
देवालय बंद
मदिरालय खुले *

*लोभ का प्रचण्ड
तांडव नशे में
धुत मानव*

*चूल्हा ठंडा
बाल नयन अश्रु
भोजन ताकते चक्षु*

*उच्च संस्कारों की
धरती पर नग्न नृत्य
हाय! निंदनीय
संस्कृति का चीरहरण*

 *आधुनिकता के नाम पर
सभ्यता का ढोंग
मनुष्यता को लगाते
भद्दा दाग  *

" शोहरत का नशा *

( शोहरत का नशा जब चड़ता है,तब मनुष्य ऊपर बस ऊपर की और देखता है उसे यह भी ज्ञात नहीं होता की एक ना एक दिन यह नशा जब उतरेगा तब वह चित होकर धरती पर गिरेगा )

   रमन और मयंक दो मित्र थे ,बचपन से एक साथ एक ही विधालय में पड़े ,दोनों में अच्छी मित्रता थी ।
लेकिन जैसे -जैसे उम्र बड़ रही थी ,दोनों में एक अलग सी दूरियां पैदा होने लगी थी ।
रमन और मयंक यूं तो बहुत अच्छे मित्र थे और भावात्मक सम्बन्ध था रमन और मयंक में ।

  रमन को विरासत में अपने पिता का कारोबार ,जमीन जायदाद की हिस्सेदारी मिली थी ।

 वहीं मयंक एक मधयम परिवार से था ,मयंक पिताजी नौकरीपेशा थे ,और मयंक भी किसी कम्पनी में नौकरी करने लगा था ।

 रमन के रहन -सहन का स्तर ,बहुत बड़ गया था ,मंहगी, लम्बी गाड़ियों में घूमना उसे बहुत अच्छा लगता था । रमन ने अपने व्यापार में भी बहुत तरक्की कर ली थी ,शोहरत रमन के कदम चूम रही थी।

यहां मयंक अपने आफिस के काम काज में व्यस्त रहता था ।
एक दिन मयंक को आफिस के काम से रमन के पास जाना पड़ा ,कुछ कागजों में साइन करने थे , मयंक ने रमन के कमरे के बाहर खड़े वाच मेन से कहा ,की साहब को कहें की उनका मित्र मयंक आया है,आफिस के काम से, वॉचमैन अन्दर गया रमन ने का जवाब था ,की कागज दे दिए जाएं ,उन्हें पड़कर उनपर साइन हो जायेंगें ,यहां कोई किसी का मित्र नहीं सब कर्मचारी हैं ।
 थोड़ी देर में वॉचमैन ने साइन किए हुए कागज लाकर मयंक को दे दिए थे।
 मयंक ने वॉचमैन से कहा ,की वह रमन से निजी रूप से मिलना चाहता है ,आखिर वह उसका मित्र है ,यह संदेशा रमन जी को दिया जाए ।
 रमन ने वॉचमैन से कहलवा कर मयंक से मिलने को मना के दिया था ।
रमन उदास मन से वहां से जाने लगा ,अब मयंक समझ गया था की रमन की आंखों पर उसकी धन-दौलत और शोहरत का पर्दा चड़ चुका है ।
  तभी रमन ,अपने आफिस से बाहर जाते हुए चाल में तेजी थी ,और शोहरत का अहंकार था ।




*मार्गदर्शक की भूमिका *

 सकारात्मक संकल्प
 के दिए का प्रकाश का पुंज
 होता है एक कवि ।

 निराशा में आशा की
 मशाल लेकर चलता है
 एक कवि
 उम्मीद की नयी किरणें
 सकारात्मक दिव्य प्रकाश
 के दिए जलाते चलो

माना की तूफ़ान तेज है
तिनका -तिनका बिखरो मत
उन तिनकों से हौसलों की
बुलन्द ढाल बनाते चलो

माना की घनघोर अंधेरी रात है
नाकारत्मक वृत्तियों से लड़ते हुए
सकारात्मकता का चापू चलाते चलो

संघर्ष के इस दौर में
हौसलों के महल बनाते चलो
राह में आने वालों के लिए
मार्गदर्शक की भूमिका निभाते चलो।



*ज़रा सम्भल कर ........



  बेटा :- अपनी मां से ,मां अभी चार दिन पहले ही मैंने अपने मित्र के घर जाकर ,उसका पालतू तोता जो पिंजरे में कैद था ,पिंजरा खोलकर खुले आकाश में उड़वा दिया था। 

मां जब आप छोटे थे ,तभी भी क्या कुछ ऐसा हुआ था ,की आप लोगों को घरों में कैद होकर बैठना पड़ा था , मां बेटे से नहीं बेटा हमारे जीवन काल में ऐसा कभी नहीं हुआ बेटा ।

बेटा :- मनुष्य पहले तो घर से निकला था दो रोटी कमाने के लिए ,लेकिन चलते - चलते भागने लगा ,फिर एक समय ऐसा आया मनुष्य भागते -भागते एक दूसरे की जान को परवाह किए बिना एक दूसरे को धक्के देकर एक दूसरे को चोट पहुंचाने लगा ।
  
 फिर समय बीतने के साथ -साथ मनुष्य स्वयं को धरती का भगवान समझने लगा ।
आसमान में उड़ने लगा ,अंतरिक्ष की यात्रा चांद की सतह तक भी पहुंच गया मनुष्य ।
यूं तो कोई विचित्र बात नहीं थी यह ,क्योंकि मनुष्य धरती पर सबसे बुद्धिमान प्राणी है ,वास्तव में यह धरती मनुष्यो के लिए ही है ,प्रकृति में हम मनुष्यों के पालन - पोषण आधि -व्याधियों की समस्त व्यवस्था है ।
उस पर भी मनुष्य दिमाग़ ने जीव - जंतुओं पर शोध करने आरम्भ कर दिए ,पशुओं को जंतुओं का भोजन करने लगा ।
 किसी प्राणी का भक्षण के उसे अपना भोजन बनाना कितना बड़ा अपराध है,मनुष्य ना जाने क्या-क्या अपराध करने लगा ।
 कई लोगों ने तो ऐसे जीवों पर शोध कर डाला ,जो स्वयं ही मनुष्यों के प्राणों के लिए घातक हथियार बन गए । 
 बेटा यह जो समय हम देख रहे हैं ना की आज मनुष्य घरों में कैद है और ,वो जहरीले जीव धरती पर एक व्याधि बनकर फैल गए हैं।
 सुनो बेटा, आवयश्कता से अधिक छेड़खानी भी मनुष्यों को आफत में डाल देती है।
 जो जानवर जंगलों में कैद रहते थे वो जानवर आज सड़कों पर आजाद घूम रहे हैं ,और हम मनुष्य घरों में कैद हैं।
 मां क्या हम कभी घर से बाहर निकल पाएंगे ।
मां अपने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए बेटा ,सब ठीक हो जाएगा ,कुछ अच्छी शक्तियां हैं इस धरती पर जो उस दिव्य शक्ति से प्रार्थना कर इन व्याधियों को अंत करने में जरूर कामयाब होंगे ।
 बेटा मैं तुम्हें यही नसीहत देना चाहूंगी ,की तरह जिन्दगी में कभी भी किसी भी चीज का आवयश्कता से अधिक शोध और दुरुपयोग नहीं करना ।
बेटा प्रकृति यह धरती हम मनुष्यों के लिए ही है परमात्मा ने यह धरती हम मनुष्यो को रहने के लिए दी है, इसे संवारना इसे सुधारना हमारा कर्तव्य है ।
मनुष्य च

* वसीयत*

 
 मुकेश मैंने तुम्हें पहले भी कहा था की मैं नहीं जाऊंगा उनके घर.....
उनका मेरा कोई रिश्ता नहीं।
एक मित्र दूसरे मित्र को समझाते हुए ,देख पहला मित्र मुकेश, दूसरा के नाम मोहित ।

मोहित ,अपने मित्र मुकेश से सुन मित्र रिश्ते कभी नहीं टूटते , एक ना एक दिन तो उन्हें उनके घर जाना ही पड़ेगा ।


मुकेश ,क्यों जाना पड़ेगा ,उन्होंने कहा था तुम जा सकते हो ,हां हमारा रिश्ता आज से ख़तम।

मोहित :- सुनो मुकेश कई बार परिस्थितियां ऐसी होती हैं ,की कुछ ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं ।

मुकेश कोई भी रिश्ता अपने बच्चों से बड़ा नहीं होता

मोहित :- नहीं मुकेश तुम गलत सोच रहे हो ,अभी कुछ दिन पहले मुझे तुम्हारे बाबूजी मिले थे , उन्होंने मेरे साथ बहुत सारी बातें की थीं।

तभी तुम्हारे बाबूजी ने मुझे बताया की उन्होंने जो भी फैंसला लिया , तुम्हें स्वावलंबी बनाने के लिए लिया था ।
उन्होंने मुझे बताया की वो धृष्टराष्ट्र नहीं बनना चाहते थे , पुत्र मोह में अंधा होकर वो तुम्हारा आज तो संवार देते परंतु ,परंतु कल के लिए तुम मोहताज बन जाते ।

मुकेश तुम्हारे पिताजी ने तुम्हे अपनी वसीयत में से हिस्सा इसीलिए नहीं दिया था उस वक्त की उस समय तुम धन के लोभ में अंधे थे ।
अब तुम ही सोचो मुकेश अगर उस समय तुम्हे वसीयत में से हिस्सा मिल गया होता तो तुम आज यहां नहीं होते जहां तुम आज हो ।

  आज तुम स्वावलंबी हो ,और एक जिम्मेदार इंसान हो ,सिर्फ अपने पिताजी के कारण ,अगर उस समय उनकी वसीयत तुम्हें मिल जाती तो तुम उतने में हो सीमित रह जाते, तुम सोचते बहुत है तुम्हारे पास मेहनत क्यों करनी ।
जबकि उनकी वसीयत आज भी तुम्हारे ही नाम हैं ।

रोहित तुम्हारे पिताजी अस्पताल में हैं ,उनकी तबीयत ज्यादा ठीक नहीं है कमजोरी भी बहुत है ।
डाक्टर का भी कहना है की अब इनकी सेवा करो और इन्हे खुश रखो ,दवाइयों से ज्यादा दुआएं काम आती हैं ।
चलो मुकेश, बेटा ना सही इंसानियत के नाते चलो ,मिल आते हैं उस इंसान से ।
  मुकेश और मोहित अस्पताल पहुंच गए थे ,नर्स और स्टाफ मुकेश को देखकर सिर वार्ड नं 5 में जो हैं वो आपके पिताजी हैं ,मुकेश हां में सिर हिलाते हुए ।
 मुकेश और मोहित बेड के पास खड़े थे ,पिताजी की आंखे बंद थीं शायद नींद में थे
तभी हल्की सी आहट हुई पिताजी ने आंखे खोली ,सामने नरस थी ,सिर आपकी दवाइयों का समय हो गया है ।
 क्योंकि मुकेश अब बहुत बड़ा बिजनेस मेन बन गया था ,शहर के सभी लोग उसे जानने लगे थे , नर्स बाबूजी ये मुकेश जी आपके अपने बेटे हैं आपने कभी बताया नहीं , बहुत अच्छे इंसान हैं शहर में इनका बहुत नाम हैं ,आप किस्मत वाले हैं जो मुकेश जी जैसे इंसान के आप पिताजी हैं ।
मुकेश ,मोहित ,और पिताजी सब शून्य थे सबकी आंखों में अपनत्व और स्नेह की नमी और स्वाबलंबन का गर्व था।

स्वरचित :-
ऋतु असूजा ऋषिकेश




* बरकत का चूल्हा *



 *हर घर में रोज जले बरकत का चूल्हा
 प्रेम ,अपनत्व का सांझा चूल्हा **

 मां तुम जमा लो चूल्हा
 मैं तुम्हें ला दूंगा लकड़ी
 अग्नि के तेज से तपा लो चूल्हा,
 भूख लगी है ,बड़े जोर की
 तुम मुझे बना कर देना
 नरम और गरम रोटी।
 मां की ममता के ताप से
 मन को जो मिलेगी संतुष्टि 
 उससे बड़ी ना होगी कोई
 खुशी कहीं ।
 चूल्हे की ताप में जब पकता
 भोजन महक जाता सारा घर
* हर घर में रोज जले बरकत
 का चूल्हा ,प्रेम प्यार का सांझा चूल्हा *



*अग्नि जीवन आधार*

 जीवन का आधार अग्नि
 भोजन का सार अग्नि
 जीवन में , शुभ --लाभ
 पवान ,पवित्र,पूजनीय अग्नि
 ज्योति अग्नि,हवन अग्नि
नकारात्मकता को मिटाती
दिव्य सकारात्मक अग्नि

 सूर्य का तेज भी अग्नि
 जिसके तेज से धरती पर 
 मनुष्य सभ्यता पनपती
 अग्नि विहीन ना धरती
 का अस्तित्व ।

 अग्नि के रूप अनेक 
 प्रत्येक प्राणी में जीवन
 बनकर रहती अग्नि।

 प्रकाश का स्वरूप अग्नि 
 ज्ञान की अग्नि,विवेक की अग्नि
 तन को जीवन देती जठराग्नि 
अग्नि का संतुलन भी आव्यशक
ज्वलंत ,जीवन , अग्नि स्वयं प्रभा ।


  

मैं वसुंधरा

* मैं वसुन्धरा*
    ऐ मानव, सुन मेरी करुण पुकार
 मेरा दम घुट रहा है ,हवाओं में फैला है जहर
 ये कैसी हाहाकार ये कैसा कहर,
ऐ मानव,
 तुमने मेरे द्वारा दी गई स्वतंत्रता का किया
 बहुत दुरुपयोग किया,

 बस - बस अब और नहीं अत्याचार......
 बहुत दूषित किया तुमने मेरे आंचल को
 बहुत आरियां चलाईं ,छलनी किया मेरी छाती को
 मेरे धैर्य मेरी सहनशीलता का बहुत मज़क उड़ाया ,
 बस अब और नहीं........
 ऐ मानव, तुमने तो मेरी ही अस्तित्व को
खतरे में डाल दिया ,मेरी समृद्धि भी विपदा में पड़ी
ऐ मानव, दिखावे के पौधारोपण से ना मैं समृद्ध होने वाली ,तुमने तो मेरी जड़ों को ही जहरीला किया।
ऐ मानव , अब मुझ वसुन्धरा को स्वयं ही करना होगा स्वयं का उद्धार .....
ऐ मानव सुन मेरी करुण पुकार,
कर मुझ पर उपकार बन्द कर अपने घरों के द्वार
अब तक मुझे स्वयं ही करना होगा स्वयं का उद्धार ।



आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...