मैं वसुंधरा

* मैं वसुन्धरा*
    ऐ मानव, सुन मेरी करुण पुकार
 मेरा दम घुट रहा है ,हवाओं में फैला है जहर
 ये कैसी हाहाकार ये कैसा कहर,
ऐ मानव,
 तुमने मेरे द्वारा दी गई स्वतंत्रता का किया
 बहुत दुरुपयोग किया,

 बस - बस अब और नहीं अत्याचार......
 बहुत दूषित किया तुमने मेरे आंचल को
 बहुत आरियां चलाईं ,छलनी किया मेरी छाती को
 मेरे धैर्य मेरी सहनशीलता का बहुत मज़क उड़ाया ,
 बस अब और नहीं........
 ऐ मानव, तुमने तो मेरी ही अस्तित्व को
खतरे में डाल दिया ,मेरी समृद्धि भी विपदा में पड़ी
ऐ मानव, दिखावे के पौधारोपण से ना मैं समृद्ध होने वाली ,तुमने तो मेरी जड़ों को ही जहरीला किया।
ऐ मानव , अब मुझ वसुन्धरा को स्वयं ही करना होगा स्वयं का उद्धार .....
ऐ मानव सुन मेरी करुण पुकार,
कर मुझ पर उपकार बन्द कर अपने घरों के द्वार
अब तक मुझे स्वयं ही करना होगा स्वयं का उद्धार ।



विधा :- नवगीत प्रदत पंक्तियां

ऊर्मिया घूंघट उठाकर
फिर मचलती आ रही है


 मन की आंखों के घूंघट से
 नयनों में पलकों के पर्दों से
 मेरे दिल के दरवाजों से
 मेरा सपना कहता है मुझसे

 जैसे सीप में मोती
 नयनों में ज्योति 
घूंघट की आड़ में
पगली क्यों रोती

तारों की बारात है सजी
चन्दा को चांदनी जमीं पर उतरी
सपनों के सच होने में अब ना होगी देरी
देख उर्मीया घूंघट उठाकर
फिर मचलती आ रही हैं ।

स्वरचित, ऋतु असूजा







युग परिवर्तन


 निसंदेह युग परिवर्तन ने
दी है दस्तक ,चार पहियों
की रफ्तार थम गई है ।

 बहाना चाहे कोई भी हो
घरों में रिश्ते जीवंत हो रहे हैं
जीवन कल भी था जीवन आज
भी है, बचपन संस्कारित हो रहा है ।

ना जाने इससे पहले क्या कर
रहे थे,भाग रहे थे,जी कल भी
रहे थे जी आज भी रहे हैं
 क्या ज्यादा पाने के लालच में
अपना आज भी दांव पर लगा
रहे थे, कल जो देखा नहीं उन
खुशियों की खातिर अपना आज
भी गंवा रहे थे ।
आज कारण चाहे कोई भी हो
आज में जी रहे हैं ,खुश हैं की
सब साथ में हंस बोल रहे हैं ।
कल जीने की खातिर नए सपने
संजो रहे हैं ,सम्भल कर चल रहे हैं ।




ये कैसा किरदार

व्याधियां हंसने लगी
सो रहे दिन रात
प्रदत पंक्तियां......

ये कैसा किरदार
कैद होकर पिंजरों
में आज, मनुष्य बैठा
बेबस लाचार आज
संक्रमण का साम्राज्य

जीवों संग खिलवाड़
शोधों का दुरुपयोग
भोगों अपने ही
कर्मो का प्रकोप

व्याधियां हंसने लगी
सो रहे दिन - रात

व्याधियों ने लिए
अब पांव पसार
मच रही संक्रमण की
हा- हा कार

प्राण घातक
बनकर मनुष्यों के
प्राणों की आफ़त
उपद्रवी राक्षस

त्राहि -त्राहि करता
जन-जन आज
छोड़ कर सब काम - काज़
मनुष्य बेबस लाचार
सावधानी ही,
सामयिक उपचार

कारण कोई भी हो
घरों में एकजुट होने को
मजबूर हैं सब जन आज
पिंजरों में कैदी जीवन 
दर्द ए एहसास आज ।






शोधों पर शोध

शोधों पर शोध
कांपी धरा रौद्र
रूप भर क्रोध।

हवाओं में फैला जहर
संसार पर बनकर कहर।

विष संग खेला
अब विष ने आकर
तुझको ही घेरा ।

जीने के शौंक में
मौत के आशियाने
बना लिए, वाह! मानव
तूमने अपने जीने के लिए
मरने के ठिकाने बना लिए ।






यूं कश्ती भी भूल गई है
कागज वाली आज ठिकाना

ना जाने क्यों मेरा दिल
गुनगुनाना चाहता है

कोई भुला हुआ तराना
भूल कर अपने घर का
पता पुराना, ढूंढ़ रहा हूं
गुजरा हुआ जमाना ।

धुंधली सी आंखों में
यादों का यतीमखाना

जब लौटकर नहीं आने
वाला गुजरा जमाना
फिर क्यों यादों में रहता है
वो कागज़ की कश्ती और
बारिश का आना ।










* जैसी आज्ञा *

 
 आज हमारे पितामह आने वाले हैं !
       जाने आज  क्या घोषणा करेंगे ।
       
     जब भी आते हैं ,पितामह !
 कुछ ऐसा ऐलान कर जाते हैं ,पत्थर को लकीर ... एक दिन कहेंगे सांस लेना छोड़ दो आक्सीजन की कमी हो रही है,वेंटिल्टर में कमी हो रही है ,तब बताओ क्या करेंगें ,सांस लेना छोड़ देंगें।

  पितामह आज भी आये ,बोले घर से बाहर नहीं निकलना ,बाहर कोई राक्षस घूम रहा है ,बाहर निकलोगे तो वो राक्षस तुम्हें खा जायेगा, ये राक्षस आया कहां से ,पितामह कुछ तो करो।
 अब तो किसी अर्जुन का इंतजार आए , एकलव्य का अंगूठा कट गया , कर्ण जैसे दानवीर भी अब नहीं रहे ,सब तस्वीर चाहते हैं ।
  अम्मा इन पितामह में गजब का तेज है ,वो जब - जब टेलीविजन पर आकर कुछ बोलते हैं तब सब प्रजवासी बड़े धैर्य पूर्वक उनकी बातों को सुनते हैं ।

कितना सोते हो राजू तुम, इतना तो
कुंभकर्ण भी नहीं सोता था ।

राजू आपनी अम्मा से ,लगता है ,आपने रामायण कभी ढंग से नहीं देखी।

अम्मा ,अब तुम हमें रामायण के बारे में बताओगे जितनी रामायण, हमने देखी और सुनी है ,ना बेटा ,उतनी तो जिन्दगी में किसी ने भी नहीं सुनी होगी।
तुम्हारी नानी, हमें दिन रात रामायण के चरित्रों के बारे में बताती रहती थी ।
मुझे तो वो सीता कहती थीं इसलिए उन्होंने मेरा नाम सिया रखा था।

अच्छा अम्मा ,तो आप सीता माता और पिताजी हमारे राम ।

मां फिर तो मैं आपका लव हुआ ,और छोटी बहन कुशा.......

अम्मा हो..... अम्मा आप अपने को मंदोदरी समझती हो, और पापा (रावण)  ,मां जोर से चिल्लाई ,शर्म करो ,कलयुग भयंकर कलयुग आ गया है ।

मां मैंने क्या गलत कहा ,जब आपने मुझे कुंभकर्ण कहा तभी तो  मैंने कहा।

चुप हो जा मूर्ख।
अच्छा अम्मा में उठ जाता हूं ,फिर भूख लगेगी और आपको खाना बनाना पड़ेगा ।
लेकिन कुंभकर्ण तो साल में एक ही बार उठता था ,फिर बहुत सारा खाना खाता था ,और सो जाता था।

राजू व्यंग करते हुए, अम्मा मैं इसीलिए तो ज्यादा सोता हूं ,जितना कम सोऊंगा उतनी भूख कम लगेगी ।
और आप मेरे हिस्से का भोजन भूखों को खिला देना ।
राजा बेटा, मैंने तुम्हारा नाम राजा रखा था ,क्योंकि हम चाहते थे तुम राजा की तरह रहो ,राजा की तरह अपने कर्तव्यों का पालन करो ,आलस में अपना समय व्यर्थ  न करो ।
इस सुन्दर समाज की स्थापना का भार तुम्हारे कांधो पर है पुत्र ।
जैसा तुम व्यवहार करोगे कर्म करोगे वैसा ही समाज निर्माण होगा ।
राजा जैसी आज्ञा माता जी, आगे से आप हमें कुंभकर्ण कहने की गलती मत करना ।
हां पुत्र ,हम इस अपराध की क्षमा मांगते हैं ,तुम हमें जो सजा देना चाहो ,दे सकते हो ।

नहीं माता जी ,ऐसा कैसे हो सकता है आप हमारी माता है आपको हमें कुछ भी कहने का अधिकार है
हे माता , आप अपने राजा बेटे के लिए स्वादिष्ट सा भोजन परोसिए हम अभी आपकी सेवा में हाजिर होते हैं ।

हमारा क्या है ,हम तो समाज के लिए हैं ,समाज की भलाई आपकी आज्ञा हमारा तो बस यही धर्म है।


आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...