मौन की भी भाषा होती है .....

मौन की भी भाषा होती है 
सत्य,सटीक और निर्भीक 
मौन की भी भाषा होती है
आंखे भी बोलती है
शब्दों की भी जुबान होती 
किन्तु जो शब्द बोलते नहीं 
वो बहुत कुछ कह जाते हैं
कभी कोई वाक्य बनकर 
जब गीत ,कभी गजल,
या कभी कोई कविता या कहानी 
बनकर दिलों दिमाग़ पर अपनी 
अमिट छाप छोड़ अमर हो जाते
हैं ,कागज पर अंकित शब्द ......

मौन भी बोलता है ,सत्य ही तो है
कभी कोई सजीव सा चित्र भी बहुत कुछ कह 
जाता है, एक अनकही कहानी 
कभी कोई संदेश 
कभी किसी का दर्द, 
प्रेम,सुंदरता,भाव,बंगीमा सब क
जाता है एक सजीव चित्र भी
अनगिनत लोगों के लिए प्रेरणा बन उभरता है
जब किसी चित्रकार का चित्र 
तब कुछ ना कहकर भी बहुत कुछ जाता है एक चित्र। मौन रहकर भी बोलती है प्रकृति 
कभी पतझड, बसंत , सावन, और समृद्धि के रूप में
हरियाली बनकर ,रंग-बिरंगे पुष्पों की सौगात बनकर ........


करोना योद्धा


वारियर्स यानि योद्धा
योद्धा के भी कई रूप होते हैं
क्योंकि जीवन में कई
पड़ाव ऐसे आते हैं
जब हमें उन परिस्थितियों का सामना
एक योद्धा की तरह करना पड़ता है
यानि ऐसी परिस्थिति जिससे
हमें बहुत क्षति हो सकती है
हमें जीवन और मृत्यु के
बीच की जंग लड़नी होती है
जंग में क्या होता है ,की हमें
स्वयं को सुरक्षित रखकर
अपने दुश्मन से या  फिर यूं कहिए
उस विषम परिस्थिति से बचकर
उस शत्रु को सबक सिखाते हुए
अपने मार्ग से हटाना होता है।

अमृत रस


नए युग का नया सवेरा
स्वर्णिम सपनों का
अद्भुत मेला
मन अलबेला
देखे स्वर्णिम युग का
नित्य नूतन सवेरा।

मन में भावनाओं
का गहरा समुंदर
जिसमे विचारों का
अद्वितीय खजाना
जीवन का तराना
सरगम की धुन पर
जीवन के उतार-चढ़ाव का
आना जाना ।

जीवन के हर राग
पर मधुर संगीत बजाना
अनुभूतियों के प्रवाह मध्य
बहती नदिया बीच मझधार
विवेक ज्ञान ही जिसका आधार

विचारों की कश्मकश का सागर
सागर में लहरों का उठना
कुछ अनकहा उछाल जाना।

गागर में जो सागर
छलक-छलक जाए
कभी गद्य कभी पद्य
विचारों के मंथन का अमृत रस
काव्य रस का अद्वितीय खजाना
मेरे सपनों में
स्वर्ग से सुन्दर
समाज का सपना
सत्यता की मशाल
लिए विचारों के द्वंद
से नित -प्रतिदिन युद्ध करना
हे परमात्मा मुझमें मेरी प्रतिज्ञा को
बुद्ध करना ,विचारों को नित्य शुद्ध करना ।








*दोहे संस्कृति और सभ्यता*

*भारतीय संस्कृति
का घोर पतन
देवालय बंद
मदिरालय खुले *

*लोभ का प्रचण्ड
तांडव नशे में
धुत मानव*

*चूल्हा ठंडा
बाल नयन अश्रु
भोजन ताकते चक्षु*

*उच्च संस्कारों की
धरती पर नग्न नृत्य
हाय! निंदनीय
संस्कृति का चीरहरण*

 *आधुनिकता के नाम पर
सभ्यता का ढोंग
मनुष्यता को लगाते
भद्दा दाग  *

" शोहरत का नशा *

( शोहरत का नशा जब चड़ता है,तब मनुष्य ऊपर बस ऊपर की और देखता है उसे यह भी ज्ञात नहीं होता की एक ना एक दिन यह नशा जब उतरेगा तब वह चित होकर धरती पर गिरेगा )

   रमन और मयंक दो मित्र थे ,बचपन से एक साथ एक ही विधालय में पड़े ,दोनों में अच्छी मित्रता थी ।
लेकिन जैसे -जैसे उम्र बड़ रही थी ,दोनों में एक अलग सी दूरियां पैदा होने लगी थी ।
रमन और मयंक यूं तो बहुत अच्छे मित्र थे और भावात्मक सम्बन्ध था रमन और मयंक में ।

  रमन को विरासत में अपने पिता का कारोबार ,जमीन जायदाद की हिस्सेदारी मिली थी ।

 वहीं मयंक एक मधयम परिवार से था ,मयंक पिताजी नौकरीपेशा थे ,और मयंक भी किसी कम्पनी में नौकरी करने लगा था ।

 रमन के रहन -सहन का स्तर ,बहुत बड़ गया था ,मंहगी, लम्बी गाड़ियों में घूमना उसे बहुत अच्छा लगता था । रमन ने अपने व्यापार में भी बहुत तरक्की कर ली थी ,शोहरत रमन के कदम चूम रही थी।

यहां मयंक अपने आफिस के काम काज में व्यस्त रहता था ।
एक दिन मयंक को आफिस के काम से रमन के पास जाना पड़ा ,कुछ कागजों में साइन करने थे , मयंक ने रमन के कमरे के बाहर खड़े वाच मेन से कहा ,की साहब को कहें की उनका मित्र मयंक आया है,आफिस के काम से, वॉचमैन अन्दर गया रमन ने का जवाब था ,की कागज दे दिए जाएं ,उन्हें पड़कर उनपर साइन हो जायेंगें ,यहां कोई किसी का मित्र नहीं सब कर्मचारी हैं ।
 थोड़ी देर में वॉचमैन ने साइन किए हुए कागज लाकर मयंक को दे दिए थे।
 मयंक ने वॉचमैन से कहा ,की वह रमन से निजी रूप से मिलना चाहता है ,आखिर वह उसका मित्र है ,यह संदेशा रमन जी को दिया जाए ।
 रमन ने वॉचमैन से कहलवा कर मयंक से मिलने को मना के दिया था ।
रमन उदास मन से वहां से जाने लगा ,अब मयंक समझ गया था की रमन की आंखों पर उसकी धन-दौलत और शोहरत का पर्दा चड़ चुका है ।
  तभी रमन ,अपने आफिस से बाहर जाते हुए चाल में तेजी थी ,और शोहरत का अहंकार था ।




*मार्गदर्शक की भूमिका *

 सकारात्मक संकल्प
 के दिए का प्रकाश का पुंज
 होता है एक कवि ।

 निराशा में आशा की
 मशाल लेकर चलता है
 एक कवि
 उम्मीद की नयी किरणें
 सकारात्मक दिव्य प्रकाश
 के दिए जलाते चलो

माना की तूफ़ान तेज है
तिनका -तिनका बिखरो मत
उन तिनकों से हौसलों की
बुलन्द ढाल बनाते चलो

माना की घनघोर अंधेरी रात है
नाकारत्मक वृत्तियों से लड़ते हुए
सकारात्मकता का चापू चलाते चलो

संघर्ष के इस दौर में
हौसलों के महल बनाते चलो
राह में आने वालों के लिए
मार्गदर्शक की भूमिका निभाते चलो।



*ज़रा सम्भल कर ........



  बेटा :- अपनी मां से ,मां अभी चार दिन पहले ही मैंने अपने मित्र के घर जाकर ,उसका पालतू तोता जो पिंजरे में कैद था ,पिंजरा खोलकर खुले आकाश में उड़वा दिया था। 

मां जब आप छोटे थे ,तभी भी क्या कुछ ऐसा हुआ था ,की आप लोगों को घरों में कैद होकर बैठना पड़ा था , मां बेटे से नहीं बेटा हमारे जीवन काल में ऐसा कभी नहीं हुआ बेटा ।

बेटा :- मनुष्य पहले तो घर से निकला था दो रोटी कमाने के लिए ,लेकिन चलते - चलते भागने लगा ,फिर एक समय ऐसा आया मनुष्य भागते -भागते एक दूसरे की जान को परवाह किए बिना एक दूसरे को धक्के देकर एक दूसरे को चोट पहुंचाने लगा ।
  
 फिर समय बीतने के साथ -साथ मनुष्य स्वयं को धरती का भगवान समझने लगा ।
आसमान में उड़ने लगा ,अंतरिक्ष की यात्रा चांद की सतह तक भी पहुंच गया मनुष्य ।
यूं तो कोई विचित्र बात नहीं थी यह ,क्योंकि मनुष्य धरती पर सबसे बुद्धिमान प्राणी है ,वास्तव में यह धरती मनुष्यो के लिए ही है ,प्रकृति में हम मनुष्यों के पालन - पोषण आधि -व्याधियों की समस्त व्यवस्था है ।
उस पर भी मनुष्य दिमाग़ ने जीव - जंतुओं पर शोध करने आरम्भ कर दिए ,पशुओं को जंतुओं का भोजन करने लगा ।
 किसी प्राणी का भक्षण के उसे अपना भोजन बनाना कितना बड़ा अपराध है,मनुष्य ना जाने क्या-क्या अपराध करने लगा ।
 कई लोगों ने तो ऐसे जीवों पर शोध कर डाला ,जो स्वयं ही मनुष्यों के प्राणों के लिए घातक हथियार बन गए । 
 बेटा यह जो समय हम देख रहे हैं ना की आज मनुष्य घरों में कैद है और ,वो जहरीले जीव धरती पर एक व्याधि बनकर फैल गए हैं।
 सुनो बेटा, आवयश्कता से अधिक छेड़खानी भी मनुष्यों को आफत में डाल देती है।
 जो जानवर जंगलों में कैद रहते थे वो जानवर आज सड़कों पर आजाद घूम रहे हैं ,और हम मनुष्य घरों में कैद हैं।
 मां क्या हम कभी घर से बाहर निकल पाएंगे ।
मां अपने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए बेटा ,सब ठीक हो जाएगा ,कुछ अच्छी शक्तियां हैं इस धरती पर जो उस दिव्य शक्ति से प्रार्थना कर इन व्याधियों को अंत करने में जरूर कामयाब होंगे ।
 बेटा मैं तुम्हें यही नसीहत देना चाहूंगी ,की तरह जिन्दगी में कभी भी किसी भी चीज का आवयश्कता से अधिक शोध और दुरुपयोग नहीं करना ।
बेटा प्रकृति यह धरती हम मनुष्यों के लिए ही है परमात्मा ने यह धरती हम मनुष्यो को रहने के लिए दी है, इसे संवारना इसे सुधारना हमारा कर्तव्य है ।
मनुष्य च

आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...