** धरती माँ**

 मैं धरती माँ का अपकारी हूँ,
ये धरती न तेरी है, ना मेरी है
ना धरती माँ के लिये कत्ले आम करो
ना धरती माँ का अपमान करो ।
जख्मो से धरती छलनी है ,मत अपने विनाश का
सामान करो ,धरती का सीना जब फट  जायेगा
विनाश ही विनाश हो जायेगा ।

भगवान ने धरती हम मनुष्यों के लिये
बनायी ,धरती का भार मनुष्यों को दिया।

तुम चाहो तो धरती को स्वर्ग बना लो या नरक
मनुष्यों को तो देखो ,अपने बुरे कर्मों
द्वारा धरती को युद्ध भूमि ही बना डाला ।

अरे ये धरती हम मनुष्यों की है ,ये इस धरा का
उपकार है कि उसने हमें रहने के लिये स्थान दिया
जानते तो अग़र धरती ना होती तो हम
*बिन पैंदी के लौटे* की तरह लुढ़कते रहते
प्रकृति के रूप में हमें जो विरासत मिली है
उसका संरक्षण करो , मत इसका भक्षण करो।
अपने हक में तो सब दुआ करते हैं
 काश की सब सबके हित में दुआ
करने लग जाये तो धरती पर स्वर्ग आ जाये ।।



"इस वर्ष विजयदशमी पर, कलयुगी रावणों का अंत करने का निर्णय लें।


*विजय दशमी*
" सच्चाई की बुराई पर जीत का पर्व"
 सतयुग में जब अहंकारी रावण का अत्याचार बढ़ता जा रहा था ,रावण जो परम् ज्ञानी था ,परन्तु अपने अहंकार के मद के नशे में चूर रावण दुष्टता की चरम सीमा को पार करता जा रहा था ,धरती पर साधु,सन्यासी,सरल ग्रहस्थी लोग रावण के अत्याचारों से हा-हा कार करने लगे ,तब धरती को राक्षस रूपी रावण से  पापमुक्त करने के लिये, परमात्मा रामचन्द्र को लीला करनी पढ़ी ,और श्री राम ने लीला करते हुए ,अपनी भार्या सीता को रावण की कैद से आजाद कराने के लिये ,भाई लक्ष्मण ,हनुमान, सुग्रीव,जाववंत, आदि वानर सेना के सहयोग से ,रावण रूपी राक्षस से धरती को पाप मुक्त कराया ।
तभी से आज तक रावण, कुंभकर्ण,और मेघनाद के पुतलों को जला कर गर्वान्वित महसूस किया जाता है ।
 
आज कलयुग में में भी इस विजय दशमी की बहुत महिमा है ,अच्छी बात है । परन्तु कब तक ?
सतयुगी रावण तो कब का मारा गया । प्रत्येक वर्ष रावण के पुतले को जला कर हम मानवीय जाति शायद यह साबित करना चाहती कि रावण तो बस एक ही था ,और तब से अब तक रावण का पुतला जला कर हम बहुत श्रेष्ठ काम कर रहे हैं ,अजी कुछ भी श्रेष्ठ नहीं कर रहे हैं आप लोग , अगर हिम्मत है तो कलयुगी रावणों से धरती को पाप मुक्त करके दिखाओ।
आज कलयुग में मानव रूपी मन में कई रावण पल रहे हैं ।आज भाई-भाई का दुश्मन है ,परस्पर प्रेम के नाम पर सिर्फ लालच ही भरा पड़ा है । कोई किसी को आगे बढ़ते देख खुश नहीं है ,हर कोई आगे बढ़ने की होड़ में एक दूसरे को कुचल रहे हैं ।
आज कलयुग में एक नहीं अनगिनत रावण धरती पर विचरण कर रहे हैं ,अगर करना है तो इन रावणों का अंत करो
आज के युग मे सिर्फ रावण के पुतले फूँकने से कोई लाभ नहीं होगा।
और कोई भगवान नाराज़ नहीं होंगे ,अगर इस वर्ष हजारों रुपये के रावण, कुंभकर्ण,और मेघनाद, के पुतले आप नही फूंकेंगे ,तो भगवान प्रसन्न होंगे।
 अगर उन्हीं रुपयों से आप किन्हीं जरूरतमंदों की सहायता करेंगे। किसी परिवार में सच्ची शिक्षा का बीज बोयेंगे किसी को जीवन में आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करेंगे ।
*विजयदशमी का पर्व *मनाईये  अवश्य मनाईये पर  सर्वप्रथम दिलों में परस्पर प्रेम को दीप जलाइए ।
*अपनत्व की फ़सल उगाओ ,वैर ईर्ष्या, निन्दा, हठ, क्रोध आदि राक्षसी वृत्तियों के पुतले हर वर्ष जलायें ।
बंद करें अब ये पुतले फूंकने का खेल आज से प्रत्येक वर्ष "विजयदशमी" पर अमानवीयता ,और अहंकारी रावणों रूपी विचारधाराओं का अंत कर उनके पुतले फुंकिये ।
  

* अमृत और विष*

 *जहर उगलने वाला नहीं, ज़हर पीने वाला हमेशा महान होता   है* 
*  बनना है तो उस कड़वी दवा की तरह बनिये जो शरीर  में होने वाले रोगों रुपी ज़हर को नष्ट करती है ,ना कि उस ज़हर की तरह जो विष बनकर किसी को भी हानि ही पहुंचता रहता है*
* शब्दों का उपयोग बड़े सोच समझ कर करना चाहिये 
 कुछ लोग कहते हैं ,हम तो दिल के साफ हैं ,जो भी कहते हैं ,
 साफ-साफ कह देते हैं ,हम दिल में कुछ नहीं रखते ।
 अच्छी बात है ,आप सब कुछ साफ-साफ बोलते हैं ,दिल में कुछ नहीं रखते ।
दूसरी तरफ आपने ये भी सुना होगा कि ,शब्दों का उपयोग सोच-समझ कर करिये । "मुँह से निकले हुए शब्द "और "कमान से निकले हुए तीर"वापिस नहीं जाते ,कमान से निकला हुआ तीर जहाँ पर जा कर लगता है ,अपना घाव कर जाता है ,अपने निशान छोड़ ही जाता है ,माना कि घाव ठीक हो ही जाता है,परंतु कड़वे शब्दों के घाव जीवन भर दिलों दिमाग पर शूल बनकर चुभते रहते हैं ।
हमारे प्राचीन, ग्रन्थ,इतिहास इस बात के बहुत बड़े उदाहरण हैं,कि देवताओं और दानवों की लड़ाई के समय *समुद्र मंथन हुआ *उस समय समुद्र से *अमृत और *विष दोनों निकले ,कहते हैं समुद्र मंथन से निकला हुआ विष एक जलजले के रूप में था ,अगर उस जलजले को यूं ही छोड़ दिया जाता तो वो सम्पूर्ण विश्व को जहरीला कर देता और युगों-युगों तक उसका असर आने वाली नस्लों को जहरीला करता रहता । सम्पूर्ण विश्व को उस जहरीले विष रूपी जलजले से बचाने के लिये ,*परमात्मा शिव शंकर ने उस विष को अपने कंठ में धारण किया ,और भगवान शिव तब से *नीलकंठ *कहलाये । तातपर्य यह कि, कई बार इस तरह के विष रूपी शब्दों के जहर से अपने कुटुम्ब, व समाज को जहरीला होने से बचाने के लिये कड़वे जहर रूपी विष को पीना पड़ता है ।*जहर उगलने वाला नहीं ,जहर पीना वाला ही हमेशा पूजनीय होता है*
जहाँ बात सत्य की है,सत्य कुछ समय के लिये झूठ के काले घने बादलों के बीच छुप जरूर सकता है ,पर जैसे ही काले घने बादल हटते हैं ,सत्य सामने होता है ,जिस तरह साफ-स्वच्छ निर्मल जल सब कुछ साफ-साफ दिखायी देता है ,चाहे वो कंकड़ हो या हीरा ।

💐फ़लसफ़ा💐

   **💐💐खिले-खिले पुष्पों से ही घर,आँगन महकते है,
   प्रकृति प्रदत्त,पुष्प ,भी किसी वरदान से कम नहीं
   अपने छोटे से जीवन में पूरे शबाब से खिलते हैं💐 पुष्प💐
   और किसी न किसी रूप में काम आ ही जाते हैं
    जीवन हो तो पुष्पों के जैसा, छोटे से सफ़र में बेहद की
    हद तक उपयोगी बन जाते हैं।💐💐

   जीवन का भी यही फ़लसफ़ा है,
  💐 बुझे हुए चिरागों को किनारे कर ,
   जलते हुए चिरागों से ही घर रोशन किये जाते हैं ।
   क्योंकि जो जलता है, वही जगमगाता है ।

 ☺☺  कभी -कभी  यूँ ही मुस्करा लिया करो
   गीत गुनगुना लिया करो ।
  जीवन का संगीत हमेशा
  मधुर हो आवयशक नहीं ।
  हालात कैसे भी हों तान छेड़ दिया करो
  सुर सजा लिया करो,गीत बना लिया करो
  जीवन एक संगीत भी है
  हर हाल में गुनगुना लिया करो ।

 चाँद में दाग है ,सबको पता है
 फिर भी चाँद ही सबका ख्वाब है
 क्योंकि चाँद में चाँदनी बेहिसाब है ।☺☺

* खिलने दो मासूम कलियों को *


*शाम के आठ बजते ही घर में सब शान्त हो जाते थे।
एक दिन न जाने भाई-बहन में किस बात पर बहस छिड़ गयी थी ,बच्चों की माँ चिल्ला रही थी दोनों इतने बड़े हो गये हैं फिर भी छोटी-छोटी बातों पर लड़ते रहते हैं ।

माँ अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही थी कि,बच्चों की बहस खत्म हो ,माँ बच्चों के पास बैठी बोली तुम्हारे पापा, और दादा जी आने वाले हैं ,और तुम्हें पता है, की उन्हें बिल्कुल भी शोर पसन्द नहीं है ,वैसे ही दोनों दिन भर के थके हुए होते हैं ।
बेटी,सान्या दस साल की और बेटा सौरभ पन्द्रह साल का ,लेकिन भाई, बहन की लड़ाई में कौन छोटा कौन बड़ा दोनों अपने को बड़ा समझते हैं ,चलो किसी तरह शांति हुयी ।
माँ बोली आज साढ़े आठ बज गये हैं ,आज तुम्हारे दादा जी और पापा को देर हो गयी है ,अब तुम दोनों शांति से बैठे रहना ,वरना सारा गुस्सा तुम दोनों पर ही निकलेगा ।

इतने मे डोर बेल बजी ,दादा जी ,और पापाजी हाथ-मुँह धो कहना खाने बैठ गये ,माँ  एक सेकंड भी देर नहीं करती थी दोनों को खाना परोसने में,क्योंकि माँ वो दिन कभी नहीं भूलती थी ,जब एक दिन खाना देर से परोसने पर माँ को दादा जी से बहुत फटकार पड़ी थी ,और दादा जी ने उस दिन खाना भी नहीं खाया था ,और माँ को बहुत बड़ा लेक्चर दिया था ,कि बहू समय की क़ीमत समझो ,अपने बच्चों को कल क्या सिखाओगी ,वगैरा-वगैरा .....

रात को भोजन हो गया था,दादा जी, और पापा जी रोज की तरह आज भी दिन-भर क्या कमाया ,किसका कितना लेन-देन है बात-चीत करने लगे । इधर बच्चे अपना-अपना स्कूल का बैग लेकर बैठ गये और पढ़ने लगे ,पर बच्चे तो बच्चे ठहरे ,थोड़ा पढ़ना ,ज्यादा मस्ती ,ना जाने किस बात पर दोनों भाई -बहन हँसने लगे ,पापा ने आवाज लगायी ,पढ़ाई में मन लगाओ ,बच्चे चुप होकर पढ़ने लगे ।
आधा घंटा बीत गया था ,भाई बोला मेरा काम हो गया ,बहन बोली मेरा भी होने वाला है ,वो जल्दी -जल्दी लिखने लगी ।
भाई खाली बैठा था,खाली दिमाग शैतान का दिमाग ....

दोनों भाई बहन के स्कूल का काम पूरा हुआ ही था कि, भाई को जाने क्या सूझी ,बहन को पेंसिल चुभा दी,फिर तो दोनों भाई-बहन में झगड़ा शुरू हो गया, माँ ने बहुत समझाया की वो चुप हो जायें लेकिन दोनों ही बराबर बोले जा रहे थे,इसने ये किया ,उसने वो किया जब बहुत देर तक भाई-बहन की लड़ाई खत्म ना हुई तो उधर से पापा ने आवाज लगायी ,पापा की आवाज सुनते ही दोनों चुप हो गये।थोड़ी देर शान्ति से बैठने के बाद फिर जाने क्या बात हुयी ,दोनों भाई बहन हँसने लगे ,और हंसी भी ऐसी की रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी ,पापा-मम्मी दोनों ने उन्हें शान्ति से रहने को कहा दोनों भाई-बहन थोड़ा चुप होते फिर शुरू हो जाते ,ये सिलसिला बढ़ता ही जा रहा था । दिन-भर के काम के बाद दादा जीऔर पापा जी पहले ही इतना थक जाते थे कि घर पर आकर उनका सिर्फ चुप-चाप काम करके आराम करने का मन करता ।
बच्चों की हँसी और शरारतों की आवाजें मानों पापा को परेशान कर रही थीं, पापा जी उठे और बच्चों के पास जाकर जोर-जोर से डाँटने लगे ,बच्चे डर गये ,सहम गये ,बेटी के तो आंखों से आँसू ही बहने लगे ,भाई-बहन आपस मे चाहे जितना लड़ लें ,पर दोनों में से कोई भी एक दूसरे के आँसू नहीं देख सकता ।
भाई  बहन के आँसू देखकर बोला पापा ,आप को तो हँसना आता नहीं ,औरों को भी हँसने नहीं देते बिना बात पर छुटकी को रुला दिया ,इतने मे माँ ने बेटे को जोर की डाँट लगायी ,पापा से ऐसे बात करते हैं ,चलो माफ़ी माँगो अपने पिताजी से ......
अगला दिन सुबह के आठ बजे थे,बच्चे स्कूल के लिये तैयार होकर ,स्कूल चले गये ,आज बच्चों ने पापा-मम्मी से कोई फ़रमाइश नहीं की।
पापा जी बच्चों की माँ से बोलने लगे ,देखा जब तक बच्चों को डांटे ना तब तक अक्ल नहीं आती आज देखा कितने अच्छे लग रहे थे ।
आज स्कूल से आने के बाद भी बच्चे ज्यादा बोले नहीं थे चुप ही रहे माँ खुश थी कि बच्चे सुधर गये ।
रोज की तरह रात के आठ बजे दादा जी और पापा घर आ गये थे ,आज बड़ी शांति से दादा जी और पापा ने खाना खा कर काम किया ,बच्चे भी टाइम से सो गये थे।
अब तो हर रोज यही सिलसिला ,एक और तो दादाजी और पापा खुश थे कि उनके बच्चे शांत स्वभाव के हो गये हैं, परन्तु अब दादाजी ,और पापा को एक कमी अखरने लगी ,लगा जैसे घर में खिलौने तो हैं ,पर इनसे खेलने वाला कोई नहीं है ,नन्हें पंछी तो हैं ,पर वो उड़ नहीं सकते चहक नहीं सकते ,पापा को अपनी गलती महसूस हुयी ,उन्हें लगा यही तो बच्चों के खेलने -कूदने और शरारते करने के दिन है ,बड़े होकर तो यह हमारे जैसे हो जायेंगे ,जी लेने दें इन्हें इनकी जिन्दगी।
आज तो मानो चमत्कार हुआ पापा जी अपने बाच्चों के पास जाकर बैठ गये, ये क्या आज तो पापाजी बच्चों जैसी हरकतें करने लगे, पापा जी ने अपने बच्चों के साथ बहुत मस्ती मारी ,चुटकले सुना सुना कर बच्चे हँसी के मारे लोट-पोट हो रहे थे ,
पापाजी भी हँस रहे थे ,बैटे ने पूरे परिवार के साथ पापा जी ,माँ दादाजी सबकी हँसती हुई एक सेल्फी ली ।
फिर पापा को वो फोटो दिखाते हुए बोला पापा जी आप हंसते हुए बहुत अच्छे लगते हैं, और आपको तो हंसना आता है फिर आप हँसने में कंजूसी क्यों दिखाते हो , पापा हमारे स्कूल की एक किताब में भी एक पाठ है ,जिसमे हँसने के फायदे लिखें है ।
"पापा हँसने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, और नकारात्मक ऊर्जा खत्म होती है ।"
"हँसना स्वास्थ्य के लिये बहुत लाभदायक है ।"



"पापा जी बोले हाँ बेटा मैं जानता हूँ पर कभी किसी की मजबूरी पर किसी के दुख पर मत हँसना ....."

"बच्चे बोले पापा हम आपके बच्चे हैं ,आपसे हमे ऐसे संस्कार मिलें हैं कि हम कभी किसी का मज़ाक नहीं उड़ाएंगे और ना ही बुरा करेंगे ।।"


👍आत्मविश्वास👍

*आत्मविश्वास *

     " आत्म विश्वास यानि स्वयं का स्वयं पर विश्वास
       अद्वित्य,अदृश्य, आत्मा की आवाज़ है ,आत्मविश्वास"

       आत्मविश्वास मनुष्य में समाहित अमूल्य रत्न मणि है।
       आत्मविश्वास एक ऐसी पूंजी है
       जो मनुष्य की सबसे बड़ी धरोहर है।

      आत्म विश्वास ही चींटी को पहाड़ चढ़ने को प्रेरित करता          है ,वरना कहाँ चींटी कहाँ पहाड़।
      आत्मविश्वास विहीन मनुष्य मृतक के सामान है ।

       तन की तंदरुस्ती माना की पौष्टिक भोजन से आती है 
       परन्तु मनुष्य के आत्मबल को बढ़ाता है 
       उसका स्वयं का आत्मविश्वास ।

       आत्म विश्वास ही तो है जिसके बल पर बड़ी-बड़ी जंगे             जीती जाती हैं ,इतिहास रचे जाते हैं ।
     
       आत्मविश्वास, यानि, स्वयं की आत्मा पर विश्वास
       स्वयं का स्वयम पर विश्वास जरूरी है ,वरना हाथों
       की लकीरें भी अधूरी हैं।
       कहते हैं हाथों की लकीरों में तकदीरें लिखी होती है 
       बशर्ते तकदीरें भी कर्मों पर टिकी होती हैं ।

       आत्म विश्वास यानि स्वयं में समाहित ऊर्जा को                    पहचानना और उसे उजागार करना ।
       तन की दुर्बलता तो दूर हो सकती है 
       परन्तु मन की दुर्बलता मनुष्य को जीते जी मार 
       देती है ।
       इसलिए कभी भी आत्म विश्वास ना खोना 
       मेरे साथियों ,क्योंकि आत्मविश्वास ही तुम्हारी 
       वास्तविक पूँजी है , जो हर क्षण तुम्हें प्रेरित करती है।
        निराशा से आशा की और ले जाती है । 
             

**मेरी नियति**

  **  ना जाने मेरी नियति
        मुझसे क्या -क्या करवाना
            चाहती है ।

       मैं संतुष्ट होती हूँ
       तो होने नहीं देती
       बेकरारी पैदा करती है ,
       जाने मुझसे कौन सा अद्भुत
       काम करवाना चाहती है ।

       मैं जानती हूँ ,मैं इस लायक नहीं हूँ
       फिर भी मेरी आत्मा की बेकरारी ,
       मुझे चैन से बैठने ही नहीं देती।
       समुन्दर में लहरों की तरह छलांगे
                  लगती रहती है।

      मुझमें इतनी औक़ात कहाँ की मैं
       कुछ अद्वितीय कर पाऊँ ,
          इतिहास रच पाऊँ
       पर मेरी नियति मुझसे कुछ
       तो बेहतर कराना चाहती है।

       तभी तो शान्त समुन्दर में
       विचारों का आना -जाना लगा रहता है ।
       और मेरे विचार स्वार्थ से ऊपर उठकर
        सर्वजनहिताय के लिये कुछ करने को
            सदा आतुर रहते हैं ।

        बस मेरी तो इतनी सी प्रार्थना है परमात्मा से
          की वो निरन्तर मेरा सहयोगी रहे ।
                 मेरा मार्गदर्शन करता रहे ।
       विचारों के तूफानों को सही दिशा देकर
      शब्दों के माध्यम से कागज़ पर उकेरते रहती हूँ।
               
   


आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...