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“ मेरे मीठे सपने “

⭐️⭐️ “वो जो मेरे अपने थे ,
  “  मेरे सपने थे “⭐️⭐️
 वो जो मेरे सबसे अज़ीज़ थे
 कब से छुपा के रखा थे
दुनियाँ की नज़रों से
पलकों के दरवाज़ों में बंद करके ।
आज आँखो से छलक पड़े अश्रु बनकर
देख दुनिया का व्यभिचार , आतंकवाद का
घिनौना तांडव ...
मेरे सपने रुदन करने लगे
दर्द में कराहते हुए , कहने लगे
बस - बस करो ,
हमारे पूजनीय , गौतम , राम , रहीम , कबीर ,
विवेकानंद आदि महान विभूतियों ... की धरती पर
ये अहिंसक व्यवहार ....
मुझमें तो सिंचित थे , भारत भूमि के
महान विभूतियों ,दधिचि  ,ध्रुव ,
एकलव्य आदि के चरिथार्थ
मैं हूँ अपने पूर्वजों की , कृतार्थ

⭐️🌸“यूँ तो मेरे सपनों की किताब खुली थी
फिर भी दुनियाँ की नज़रें ना उन पर पड़ी थी ।
“मेरे सपनों का ज़हाँ बहुत ही  हसीन है 🌺🌺
सन्तुष्टता के धन से सब परिपूर्ण हैं
धर्म सबसे बड़ा इंसानियत है
भेदभाव की ना कोई जगह है
सभी सुसंस्कृत , सभ्य आचरण वाले ,
कभी किसी का दिल ना दुखाने वाले
सब सबके प्रिय , मुस्कुराते चेहरों वाले
ख़ुशियों के सौदागर
एक दूजे की त्रुटीयो को माफ़ करने वाले
सबको इंसानियत की राह दिखाने वाले
हिंसा और वैर ,विरोध की झड़ियाँ काटने वाले
अप्नत्व की फ़सल उगाने वाले
सतयुगी दुनियाँ की चाह रखने वाले
धरती पर स्वर्ग की दुनियाँ बसाने वाले हैं ।


***लोहा**
******
*आज मैं अपने मित्र से मिलने अस्पताल गया ,बहुत ही कमजोर हो गया था मेरा मित्र ,डॉक्टरों से पूछने पर पता चला उसका ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया था ,शायद उनको चिन्ता है ।जो इन्हें अन्दर ही अन्दर खाये जा रही है ।
मैं अपने मित्र के कमरे में उससे मिलने गया वह अभी सो रहा था ,शायद डॉक्टर ने दवा दी थी उससे नींद आ गयी थी ।
मैं अपने मित्र के लिये फूलों का गुलदस्ता ,थोड़े फल और जूस ले गया था । मैं खाली बैठा-बैठा सामने पड़ी मैगज़ीन उठा कर पढ़ने लगा ।
थोड़ी देर में मेरे मित्र की आँख खुली ,मैं तो एक लेख पढने मैं व्यस्त था । मेरा मित्र सामने पड़े फूलों को देखकर फूलों की तरह मुस्करा रहा था ,एकाएक मेरी नज़र मेरे मित्र पर पड़ी ,मैं बोला क्या भाई हमेशा ऐसे ही नही मुस्करा सकते मित्र बोला तुम अगर रोज यूं ही मुझसे मिलने और ये खिले फूल मेरे लिये लाते रहो तो मेरे को कोई गम नहीं ।
इतने में नर्स आ गयी दवा का समय हो गया था ।
नर्स के जाने के बाद मित्र बोला यार कुछ मीठा खिला दो ये कड़वी दवाओं से मुँह कड़वा हो गया है ,मैंने उसे सेब काट कर खिलाया ,
मैंने अपने मित्र से पूछा यार तुम्हें किस बात की चिंता है ये जो चिन्ता है ना, तुम्हे अन्दर ही अन्दर खोखला कर रही है,मित्र बोला बस अपने बेटे की चिन्ता है मेरा कहा नही मानता मैं चाहता हूँ कि वो मेरे व्यपार में मेरा बेटा सहयोग करे मेर व्यापार इतना बड़ा है अच्छा खासा चल रहा है ,औऱ मेरे बेटे को देखो अपनी ही दुनिया मे मस्त रहता है कहता है मैं खुद अपने ढंग से कम करूंगा ।
मैंने मित्र को समझाते हुए कहा कोई बात नही तुम्हारे बेटे के भी अपने सपने हैं करने दो उसे उसके मन की ।मुझे पता है तुम्हारा बेटा बहुत संस्कारी है ,तुम चिंता क्यों करते हो ।कुछ समय बाद वह तुम्हारे इस व्यपार को आसमान की ऊंचाईयों तक ले जायेगा ।

याद है तुम कहते थे मैं तो *लोहे का बना हुआ हूँ मुझे कुछ नही हो सकता ,कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता ,मैं जिस पर गिरूँगा वो टूट जायेगा जो मुझे मारना चाहेगा वो मुझसे टकरा के टूट जायेगा ,अब क्या हुआ लौह सिंह *अब तुम्हारी फौलादी ताकत कहाँ गयी ,क्या नाम के हो यार तुम भी लोहा सिंह ,जानते हो तुम मुझे कहते थे कि तू तो रुई का बना है ,और मैं लोहे का । लौह सिंह बोला हां -हां पर वक्त हर किसी को तोड़ देता है ।
मैं बोला अरे वाह लौह सिंह तुम तो बढ़े कमजोर हो ।
पता है, लौह सिंह तुम्हे तुम्हारी बेबात की चिन्ता के पानी जंक लग रहा है ।
तुम अन्दर ही अन्दर खत्म हो रहे हो,।*जिस तरह लोहे को कोई नहीं नुकसान पहुंचा सकता लेकिन अगर उस पर निरन्तर पानी पड़ता रहे तो उस पर जंक लग जाता है और वो अन्दर ही अन्दर खत्म हो जाता है *तुम्हारे साथ भी यही हो रहा है व्यर्थ की चिन्ता तुम्हें रोगी बना रही है ,स्वयम को व्यर्थ की चिंता के नरकसे बचाओ ,जानते हो जैसा हम सोचतें हैं वैसा होने लगता है । अच्छा सोचो अच्छा होगा मनुष्य के संकल्प शक्तियों में बहुत ताकत होती है ।


मनमर्जीयां

इस उम्र मैं यह सब अच्छा नहीं लगता तुम पर मां ...
     .. लोग क्या कहेंगे मां.. 
 मां हैरान थी, अपनी बेटी की बातें सुनकर , सोच रही थी क्या यही क्या यह वही बेटी है जिसे कल मैंने उंगली पकड़कर चलना सिखाया था सही और गलत में भेद बताया था आज यही बेटी मुझे सही और गलत का भेद बता रही है यूं तो मां मन ही मन गर्व महसूस कर रही थी कि उसकी बेटीअब इतनी समझदार हो गई है कि वह अपनी मां को अच्छा और बुरा समझा सकें, परंतु आज मां स्वयं को जीवन के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा पा रही थी जहां मनुष्य जीवन में एक बदलाव जरूर आता है।

     मांअपने बच्चों की बातें सुनकर कुछ पल के लिए अतीत की यादों में खो गई, उसे याद आने लगे वह पल जब उम्र के एक पड़ाव में उसके बच्चों में एक बदलाव आने लगा था जिसे देख कर मां के मन में भी कुछ विचार उमड़-घुमड़ करने लगे थे।

    आज इस स्थिति में मां को महसूस हो रहा था की जिंदगी के कुछ पड़ाव ऐसे होते हैं ,  जब इंसानी प्रवृत्ति में बदलाव आता है यही बदलाव मां ने अपने बच्चों में उस वक्त देखा था जब वह बचपन से जवानी की और बढ़ रहे थे मां अपने बच्चों के क्रियाकलापों पर हर पल ध्यान रखती थी उसका ध्यान रखना भी आवश्यक था क्योंकि,  कोई भी मां अपने बच्चों का हर पल भला चाहती है।
      मां को याद आ रहा था ,जब उसके बच्चों को स्कूल की पिकनिक में जाना था और बच्चों ने जिद्द की थी की उन्हें भी पिकनिक जाने की मंजूरी मिल जाए ।
यूं तो मां को कोई चिंता नहीं थी पर दो दिन घर से बाहर कैसे रहेंगे उसके बच्चे मां को चिंता हो रही थी घर में तो बच्चे एक गिलास पानी भी अपने आप लेकर नहीं पीते वहां जाकर क्या करेंगे, पर मन ही मन सोच रही थी की चलो बाहर जाएंगे तो कुछ सीखेंगे ही, मां ने बच्चों को उनकी जरूरत का सामान देकर और अच्छे से समझा कर ,स्कूल की पिकनिक जाने की मंजूरी दे दी।
 लेकिन जब दो दिन बाद बच्चे वापिस लौटे तो बेटे के घुटनों पर पट्टी बंधी हुई थी ,मां देखकर घबरा गई बच्चों को तो नहीं जताया ,लेकिन दिल ही दिल  सोचने लगी देखा लगा ली ना चोट कहा था ध्यान से रहना और मेरा क्या! कौन मानता है हम माएं तो होती ही बुरी हैं , टोकती जो हैं ।
मां का चेहरा देखकर बेटा बोला मां यह तो छोटी सी चोट है मां ने आव देखा ना ताव बोली क्या किया होगा किसी से झगड़ा ... इतने में बेटी बोली नहीं मां तुम गलत सोच रही हो, मां बोली हां हां मैं तो हमेशा गलत ही होती हूं बेटी बोली नहीं मां आप गलत सोच रही हो ,मां भैया का पैर फिसल गया था और उसके घुटने में चोट लग गई मां सभी ने बहुत मदद की और टीचर तो बहुत अच्छी थी जल्दी जल्दी भैया राजू की पट्टी वगैरह कराई और दवाई खिलाई पूरे रास्ते टीचर ने राजू को अपने साथ रखा , और पूरा ध्यान रखा ।
मां ने प्यार अपने दोनो बच्चों को गले लगा लिया।

  और फिर स्कूटी से दोस्तों के साथ जाना और अपनी मनमर्जियां करना... मां कैसे भूल सकती थी वह दिन जब पहली बार उसकी बेटी अमायरा को स्कूटी से चोट लगी थी ,मां का तो कलेजा ही निकल के आने को था अपनी बेटी की चोट देखकर आ...चोट ज्यादा गहरी नहीं थी जल्दी ही जख्म भर गया था ।

   मां को रह-रहकर बीते दिनों की याद आ रही थी ,बच्चों की परवरिश भी कोई खेल नहीं होता ,जैसे पौधों की देखरेख की जाती है ,वैसे ही बच्चों में भी संस्कार रूपी पौष्टिक खाद और स्नेह रूपी नीर से सिंचाई करते रहने पड़ती है
 और उस दिन जब बेटी अमायरा को अपने किसी स्कूल की मित्र की बर्थडे पार्टी में जाना था और उसकी जिद्द के आगे उसकी मां की एक नहीं चली थी मॉडर्न ड्रेस देर से लौट के आना .....मां का बस नहीं चल रहा था अमायरा का कहना था मां अब जमाना बदल चुका है मेरे साथ और भी मेरे स्कूल की फ्रेंड्स है हम सब अपना ध्यान अच्छे से रख सकते हैं और वक्त आने पर अपनी सुरक्षा भी कर सकते हैं मां आप चिंता मत करो... माना कि बेटी अपनी जगह सही थी लेकिन मां का चिंता करना भी जायज था.....

   बच्चों ने कॉलेज की दहलीज पर कदम रखा था और मां ने उन्हें बहुत कुछ  नसीहतें दी थी बच्चे भी समझदार थे बोले मां आप चिंता मत करो आपके बच्चे कभी अपनी राहों से भटकेगें नहीं ।
कभी कभी इस भागती दौड़ती जिंदगी से बच्चे भी हताश निराश हो जाते थे ,और मां उन्हें कई तरीके से प्रेरणा दे दे कर किस्से कहानियां सुनाकर प्रेरित करती रहती थी आखिर गिरते -संभलते बच्चों ने अपनी-अपनी राह चुन ली थी ।

    आज उम्र की इस दहलीज पर मां अपने को हल्का महसूस कर रही थी वह भी अपनी जिंदगी जीना चाहती थीं ।
     परंतु हमारे समाज की यह विडंबना तो देखो क्या साठ की उम्र पार करते ही... जिन्दगी ख़तम हो जाती है सपने तो चल रहे होते हैं ना ,क्या आप किसी भी उम्र में सपनों को कह सकते हैं कि तुम मेरे सपनों में मत आया करो सांसों को कह सकते हो तुम रुक जाओ जब तक सांसे चल रही हैं तब तक जिंदगी भी चलेगी ...... कहते भी हैं ना *जब तक सांस है तब तक आस *
 हम अपनी जिंदगी क्यों जीना छोड़ देते हैं क्या यहां आकर हमारा जीवन खत्म हो जाता है सांसे तो फिर भी चल रही होती है ना ..
  फिर क्यों हम साठ की उम्र के पार वाले अपनी मनमर्जियां नहीं कर सकते क्या इस उम्र में पंख कट जाते हैं मनुष्य विचार शून्य हो जाता है उसके सोचने समझने की शक्ति खत्म हो जाती है क्या उसे सपने देखने का हक नहीं होता क्या वह अपनी मर्जी से खा पी पहन नहीं सकता ...
 हां साठ की उम्र में शरीर में इतनी ताकत नहीं रहती लेकिन कहते हैं ना *मन के हारे हार है मन के जीते जीत*
मेरा तो मानना है , कि साठ की उम्र में बुद्धि इतनी परिपक्व तो अवश्य हो जाती है , कि हम अपना भला बुरा समझ सकते हैं ,अगर थोड़ी बहुत मस्तियां करने का मन होता भी है तो अपनी नीरसता दूर करने के लिए .... किसी का अट्टहास करने के लिए नहीं ।
खुलकर हंसना छोटे-मोटे खेलकूद करना ट्रैक सूट पहनकर जोगिंग पर जाना योगा करना बच्चों के साथ मौज मस्ती करना यह सब मन को तनावमुक्त रखते हैं और शरीर को स्वस्थ बनाते हैं और बुढ़ापे में चिकित्सक के यहां चक्कर भी कम लगते हैं और रसायनिक दवाई भी कम खानी पड़ती हैं।
 इस उम्र में मनुष्य इतना कुछ देख चुका होता है की उसके शौंक सारे पूरे हो चुके होते हैं वो कुछ नया करता भी है तो इसलिए की जो गलतियां या कमियां पहले उससे हुई या कमियां रह गई, उससे वो प्रेरणा लेकर सीख लेकर दुनियां को कुछ सीखा सके बता सके ...
 कुछ सोचने के बाद आखिर कुछ देर बाद बेटी बोली मां बहुत काम कर लिया तुमने जाओ ,जी लो अपनी जिंदगी .....अभी तक तो तुमने अपनी जिम्मेदारियां संभाली, तुम्हें अपने लिए समय ही कहां मिला ,मां दुनियां का क्या है वो कल भी कहती थीं आज भी कहेगी।
 तुम्हें जो अच्छा लगता है वो ही करो मां तुम तो समाज की नींव ,समाज की मार्गदर्शिका हो तुम हमेशा सही थी और रहोगी ।

मां तुमको और तुम जैसे तुम्हारे हम उम्र लोगों को आवश्यकता है खुलकर जीने की खुलकर हंसने की मां तुम हमारे समाज की नींव हों जड़े हों अगर जड़े मजबूत होंगी तभी तो उस पर सुंदर सुंदर फूल खिलेंगे सुंदर पौध तैयार होगी और समाज समृद्ध बनेगा ,मां कर लो मनमर्ज़ी का अभी तक बहुत जिम्मेदारी से संभाली हैं जिम्मेदारियां ।

लेखिका :- ऋतु असूजा ऋषिकेश

*मेरे ख्वाब*


 **जाने किसकी दुआ रंग ला रही है ,
 ख्वाबों के गुलिस्तान की क्यारियों से
 भीनी सी ,और मीठी सी सुगन्ध आ रही है *।

 " मैंने ख्वाबों में जो सपने बुने थे
  उन सपनों में मेरी वफ़ा शायद रंग
  ला रही है "।
  *ख्वाबों के सच होने का ना मुझको
  यकीन था ,ख्वाबों को देखना ,निंद्रा
  में आना ,फिर टूट जाने पर यकीन था* ।

  *मेरे ख्वाबों में निष्फल कर्म का अर्श था।
  आत्मा की आवाज़ को परमात्मा का संदेश
   जान बस कर्म करते रहने का जज़्बा था।
   शायद वही जस्बा ए कर्म ,मुझे रास आ गया
    दरिया की तरह में भी बहता रहा ।*
   
    *आत्मा का परमात्मा से सम्बंध हो गया
      जो उसका था सब मेरा हो गया ।
       मेरा जीवन सफ़ल हो गया ।
            सफ़ल हो गया* ।।

*तुम कभी मत टूटना *

 जब मैं निकला था , मौसम बड़ा सुहाना था,
 कुछ पल बहुत हँसे मुस्कराए ,सुंदर -सुंदर ख्वाब सजाये ,
 कुछ ख्वाब पूरे हुए ,कुछ अधूरे धूप तेज निकली ,गर्मी से मेरे होंठ सूखने लगे थे।
 ख्वाब अभी पूरे भी नहीं हुए  थे ,राहों में कंकड़ आ गये ,कंकड़ हटाये फिर चलना शुरू कर  दिया ,फिर बाधाओं पर बाधा मैं कुछ पल रुका ,फिर चल दिया ,मैं चल ही रहा था ,तेज आँधी आ गयी फिर तूफ़ान पर  
तूफ़ान मैं डरा सहमा , टूट सकता था ,और बिखर भी सकता था , पर मैं टिका रहा , माना की वक़्त मेरा साथ नहीं दे रहा था।  परन्तु मेरा हौंसला भी कम्बखत मेरा साथ नहीं छोड़ रहा था ।
थोड़ा वक़्त तो जरुर लगा ,मैं निराश भी हुआ ,परन्तु मेरे हौंसलों ने मरहम का काम किया तूफानों की चोटें अब भरने लगीं थी ।   सफ़र अब भी जारी था मेरा विश्वास मेरा हौंसला ही कम नहीं होने दे रहा था ।    
मौसम फिर से बदला ,सावन आया बादल बरसे खुशियों की बरसात हुई ।
मेरी आत्मशक्ति ने मेरी पीठ थपथपाई  ! क्योंकि मेरी आत्मा का विश्वास कभी टूटा नहीं ,उस  दृण  निश्चय विश्वास ने मुझे मेरी मंजिल तक पहूँचाया। जिन्दगी की दौड़ का एक फलसफा ही समझ आया उतार -चढाव तो आयेंगे ही धूप  से  पैर  भी झुलसेगें , आँधियों से सपने भी बिखरेंगें  पर  ऐ मानव  तुम ना बिखरना कभी ना टूटना  मंजिले तो मिल जायेंगी ,परन्तु अगर तुम बिखरे तो सब खत्म हो जाएगा ।।।।।।
''  मेहनती हाथ  ''
मेहनत मेरी पहचान ,मैं  मजदूर मजे से दूर। 
धनाभाव के कारण  थोड़ा मजबूर ,
मैले कुचैले वस्त्र मिट्टी से सने हाथ। 
तन पर हज़ारों घात कंकाल सा  तन 

मै मज़दूर कभी थकता नही , क्या कहूँ थक के चूर -चूर 
भी हो जाऊं पर कहता नहीं। 

क्योंकि में हूँ मजबूर  मज़दूर------
मेरे पसीने की बूँदों से सिंचित बड़ी -बड़ी आलीशान ईमारतें 
देख -देख सवयं पर नाज़ करता हुँ। 
और अपनी टूटी -फूटी झोपड़ियों मे खुश रहता हूँ। 

यूं तो रहते हैं सब हमसे दूर ,
पर बड़े -बड़े सेठ हम से काम करवाने को मज़बूर 
मजदूरों के बिना रह जाते हैं बड़े -बड़े आलिशान इमारतों के सपने अधूरे -----
में मजदूर सबके बड़े काम का ,फिर भी त्रिस्कृत 
नहीं मिलता अधिकार मुझे मेरे हक का ,
में मजदूर बड़े काम का । 


🌺🌸लेखक केशव कुमार और पुष्प वाटिका 🌺💐🌹


🌺🌹🌺💐😊
       प्रकृति प्रेमी , घण्टों दरिया किनारे बैठना , आती - जाती लहरों से मानों बातें करना , कभी किसी पहाड़ की चोटी पर     चढ़ जाना , ऊँचाइयों से अपनी धरती माँ को निहारना ........वृक्षों और वनस्पतियों तो मानो , लेखक केशव कुमार की प्रेरणा थे ,उनका तो कहना था की भगवान अगले जन्म में उन्हें वृक्ष बनायें , क्योंकि वृक्ष हर हाल में उपयोगी होता है , कभी
छांव बनता है ,फल देकर किसी की भी भूख मिटाता है , प्राणवायु देता है वृक्ष , उसकी लकड़ी भी उपयोगी होती है , मानो वृक्ष पूर्ण रूपेण उपयोगी व समर्पित होते हैं

    हर दिन की तरह केशव कुमार ,आज भी अपने शहर की मशहूर पुष्पों की दुकान जिसका नाम “पुष्प वाटिका “था , जाकर रूक गये और , रंग-बिरंगे खिले - खिले पुष्पों को निहारने लगे ।  हर दिन की तरह उस फूलों की दुकान पर काम करने वाले एक लड़के ने आकर केशव कुमार को बैठने के लिये एक कुर्सी आगे बड़ा दी , केशव कुमार मुस्कुराते हुए उस लड़के “लम्बू “से से बोले तु अपना काम कभी नहीं भूलता जा दुकान पर , भाई जी का हाथ बँटा ,
वरना वो तुझे ग़ुस्सा करेंगे , हाँ बाबूजी आप सही कहते हैं , मैं जाता हूँ  , तभी एक ग्राहक आया , उसने सभी पुष्पों के दाम पूछे , और आगे बड़ गया , तभी दुकान मालिक ने अपने यहाँ काम करने वाले लड़के लम्बू को आवाज़ दी ,और बोले तेरे से एक भी ग्राहक तो पटता नहीं , बस बातें करा लो इधर- उधर की , लम्बू क्या करता वो तो मालिक का ग़ुलाम था ,उसे तो कड़वी बातें सुनने की आदत हो गयी थी ।
    अरे ओ “लम्बू” अन्दर आ , नाम का ही लम्बू है , बस ...अक़्ल छोटी रह गयी तेरी .....
 केशव बाबू बाहर बैठे सोच रहे थे , काम तो पुष्पों का ज़ुबान  में कड़वाहट भरी है ....कैसे बिकेंगे पुष्प इसके .....
 केशव बाबू थे प्रकृति प्रेमी , शिमला की हसीन वादियों में उन्हें स्वर्ग से नजारों का आनन्द आता था ,
प्रकृति को निहारना , पक्षियों संग उड़ने के सपने देखना , उनकी बोली समझने के कोशिश करना , उन्हें बहुत सुहाता था वृक्षों की लताएँ , उन पर फल, फूल , इत्यादि , पर्वत शृंखलायें, झरने ,झील , प्रकृति की सारी कारीगरी मानों  उन्हें हर पल प्रेरित करती रहती थी ,  और उनकी भावनायें कविता , कहानी, आदि का रूप ले लेती थीं , और उनमे छिपी लेखक प्रथिभा का प्रकट करती थी ।
 
     इतने में उस पुष्प वाटिका में एक ग्राहक आया , सामने केशव कुमार बैठे थे , उन्हें दुकानदार समझ वो ग्राहक पुष्पों के दाम पूछने लगा , केशव कुमार लगभग हर रोजही वहाँ बैठा करते थे तो , उन्हें लगभग सभी के दामों का अंदाज़ा रहता था , उन्होंने दाम बता दिया , ग्राहक ने रुपये निकाले केशव कुमार को पकड़ाये और अपने पुष्प लिये और चलता बना ,
इतने में दुकानदार की नज़र केशव कुमार पर पड़ी , केशव कुमार ने रुपये आगे बड़ाते हुए कहाँ लो तुम्हारे रूपय
तुम कहते हो मैं किसी काम का नहीं , देखो मैंने तुम्हारे पुष्प बिका दिये ... दुकानदार ख़ुश होते हुए .. पता है तुमने मेरे दस रुपये का नुक़सान कर दिया , नुक़सान वो कैसे पता है ,आज ये फूल महँगा आया है , चलो कुछ तो किया तुमने केशव कुमार , आगे से किसी ग्राहक को पुष्प देते समय दाम पूछ लिया करो...,,,
 
    इतने में पुष्प वाटिका दुकान का मालिक , केशव कुमार के पास आकार बैठ गया , केशव कुमार के काँधे पर हाथ रखते हुए बोला चलो आज तुमको चाय पिलाता हूँ , चल लम्बू दो चाय लेकर आजा ,और तू वहीं पी आना चाय .....
केशव कुमार तो हमेशा पुष्प वाटिका के पुष्पों को ही निहारता रहता था , दुकान मालिक भी हमेशा की तरह आज भी केशव कुमार को टोकने लगा , बोला तुम तो मेरे पुष्पों को नज़र लगा कर रहोगे ,
केशव कुमार बोला अरे भाई मैं क्या नज़र लगाऊँगा तुम्हारे पुष्पों को ....
चलो तुम्हें पुष्पों पर कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ ।
   🌺🌺🌹🌹🌸🌸💐💐
“ मैं पुष्प हूँ “
 मैं जो खिलता हूँ ,
घर आँगन की शोभा बड़ाता हूँ
सारा आँगन महकाता हूँ ,
मेरी सुगन्ध समीर संग सारे वायुमंडल
को महकाती है , ख़ुशी हो या ग़म
मैं हर जगह काम आता हूँ , “मैं पुष्प “
अपने छोटे से जीवन को सार्थक कर जाता हूँ ।
बहुत अच्छी पंक्ति लेखक जी .... आपको और कोई काम है या नहीं तुम्हारे घर का ख़र्चा कैसे चलता है , केशव कुमार बोले , अरे तुम्हें तो पता है मेरी प्रिंटिंग प्रेस है , घर ख़र्च तो उसी से चल जाता है ।
परन्तु तुम तो जानते हो मुझे लिखने का शौंक है , मेरी एक किताब छप चुकी है दूसरी आने वाली है ।
इतने में चाय आ गयी , दोनो ने चाय पी ।

“🌺🎉पुष्प वाटिका के मालिक के मन में एक बात खटक रही थी ,बोला ये जो तुम अपना दिमाग़ लिखने में लगाते हो यही दिमाग़ किसी और काम में लगाओ तो जानते हो केशव कुमार ..तुम आसमान की ऊँचाइयाँ छू सकते हो ..... केशव कुमार  बोला भाई मैं जानता हूँ, तुम्हें क्या पता मैं आज भी आसमान की ऊँचाइयाँ ही छू रहा हूँ ।
पुष्प वाटिका वाला बोला तुम लेखकों से बातें करा लो बड़ी - बड़ी  “जेब में कोड़ी नहीं , चले विश्व भ्रमण पर”..........
केशव कुमार बोले , तुम लोगों को लेखकों के बारे में अपनी सोच बदलनी होगी .......


“जैसे तुम्हारी पुष्प वाटिका है , तुम सुन्दर -सुन्दर रंग -बिरंगे पुष्पों का कारोबार करते हो और उन पुष्पों से सुन्दर साज सज्जा कीजाती है ।       “वैसे ही हम लेखक ,विचारक ,कवि आदि , इस दुनियाँ को इस समाज को अपने सुन्दर विचारों से सजाने की इच्छा रखते हैं ,कुछ मनमोहक , प्रेरक और ज्ञानवर्धक लिखकर समाज को सुन्दर सभ्य ,विचारों से सजाना चाहते है और सजाते भी हैं ।
एक सच्चा लेखक , सुन्दर , सभ्य ,समाज  की कल्पना करता है , वहीं समाज को वर्तमान परिवेश का आइना भी दिखाता है , सही मायने में वो एक लेखक एक समाजसुधरक क़लम सिपाही होता  है ।
🌺🎉🌺🎉🌹🙏💐🌹🙏💐








दे

एर

मोहब्बत -  अनकहें शब्दों की भाषा है !!!!!!

मोहब्बत सुरों की सुमधुर झंकार है, 
इसी से रचा सुन्दर संसार है ,
अनकहें शब्दों की मीठी परिभाषा है , 
मोहब्बत नज़रों  की भाषा है।  

 पवित्र रिश्ता 
दिल में तूफ़ान , चेहरे पर मुस्कान 
जहर पी कर भी मुस्कराना ही तो 
मोहब्बत करने वालो का हुनर है। 
मोहब्बत आती नहीं सभी को रास , 
सिर्फ पा लेना ही नहीं 
 सबकुछ ख़ाक हो जाना भी 
 मोहब्बत को करता अमर है। 

पुष्पों में सुगन्ध  की तरह, 
समीर में लीन हो जाना ,
दिए में बाती संग, 
तेल का स्वाहा  हो जाना ही तो है  मोहब्बत।  

दिलो से खेलने का शौंक न पालो मेरे युवा साथियों ,
मोहब्बत के सुकून में तूफानों का अनदेखा पैगाम भी है, 
तूफानों की चोटों का नासूर बन जाना भी आम है, 
यह एक गहरा समुन्दर  है ,
समुन्दर  में रत्नों  का भंडार है, 
समुन्दर में सैलाब का आना  भी संभव है। 
फिर भी पंछियों की तरह ऊंची उड़ान भर- भर  कर ऊँचे-ऊँचें   सपने देखना 
हँसना , मुस्कराना ,इतराना, इठलाना, यही  तो मोहब्बत करने  वालों की पहचान है। 

”मंजरी”

 
    “  मंजरी को शहर आकर बहुत अच्छा लग रहा था ।
  अभी कुछ ही दिन पहले वो अपनी मौसी के साथ गाँव से शहर घूमने आ गयी  थी ।
  शहर की भागती दौड़ती चकाचौंध से भरी ज़िन्दगी मंजरी को लुभा रही थी ।
 घर में मौसी -मौसा उनके चार बच्चे तीन  लड़कियाँ और एक चौथा भाई जो अभी पाँच ही साल का था सभी लगभग आठ  दस बारह साल के थे ,मंजरी की उम्र भी बारह वर्ष ही थी ।सभी बच्चे मिलकर ख़ूब मस्ती करते थे ।
मौसा मज़दूरी करते थे ,मौसी भी चार पाँच घरों में सफ़ाई का काम करती थी ।
 कुछ दिन तो मौसी -मौसा को मंजरी बहुत अच्छी लगी परन्तु अब मंजरी मौसा की आँखो को खटकने  लगी ।मौसी -मौसा अपने ही परिवार को मुश्किल से पाल रहे थे ,अब ये मंजरी का खर्चा और बड़ गया था ।
अब मौसी मंजरी को गाँव वापिस लौट जाने की सलाह देने लगी ।

लेकिन मंजरी गाँव जाने को बिलकुल भी तैयार नहीं थी ।

एक दिन की बात है ,मौसी की तबियत अच्छी नहीं थी उस दिन काम का बोझा भी ज़्यादा था ,और आज तो मौसा भी ज़्यादा पीकर आये थे ,घर में बहुत हंगामा हुआ ,मौसी बोल रही थी एक तो घर में वैसे ही खाने वाले ज़्यादा और कमाने वाले कम ऊपर से तुम शराब पीकर पैसा उड़ा रहे हो ,घर में तो ख़र्चा देते वक़्त हाथ तंगी है और तुम्हारी अय्याशी के लिये कोई तंगी नहीं ......इतने में मौसी की नज़र मंजरी पर पड़ी .....और एक तू इतने दिन से मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ रही है ,यहाँ कोई टकसाल नहीं लगी अगर  रहना है तो मेहनत करो मज़दूरी करो या फिर गाँव वापिस जाओ......
आज मंजरी के कानों को मौसी की बात चीर रही थी .....
मंजरी गाँव वापिस जाकर क्या करती ...थोड़ा सा खेत का टुकड़ा ज़रूर है गाँव में धान ,गेहूँ ,की कोई कमी नहीं थी पेट तो किसी तरह भर ही जाता है , लेकिन पेट के अलावा और भी ज़रूरतें होती हैं जिनके लिए पैसे की आव्य्श्क्ता होती है ।
अच्छे कपड़े ,टेलेविजन ,फ़्रिंज इत्यादि सभी देखकर मंजरी की इच्छा होती थी की गाँव में उसके घर में भी ये सब कुछ हो ,वो मौसी से बोली मुझे कुछ काम दिलवा दो , मैं कुछ पैसे कमा कर गाँव ले जाऊँगी और टी॰वी॰ ,फ्रिज ख़रीदूँगी ।
मौसी को हँसी आ गयी बोली बेटा काम करना इतना आसान नहीं है ,चल फिर भी तू कह रही है तो कल से तुझे काम पर लगवाती हूँ आज ही कोई कह रहा था ,सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक उन्हीं के घर रहना होगा ,खाना पीना वही होगा रात को घर वापिस .....
मंजरी अगले ही दिन काम पर लग गयी ,चार हज़ार रुपया एक महीना तय हुआ था अच्छा काम मिलने पर दो महीने बाद पैसे बड़ा देने की बात हुई ।
मंजरी पूरे दिल से उस घर में सुबह से शाम करती ,सब सुविधा थी मंजरी को मंजरी ख़ुश थी ,काम करते -करते मंजरी को छः महीने बीत गये थे ,मंजरी हर महीने के पैसे अपनी मौसी को दे देती थी मौसी भी यह कहती की तेरे पैसे मेरे पास सुरक्षित पड़े हैं ।अब छः महीने हो गये थे मंजरी ने मौसी से कहा मौसी वो थोड़े दिन के लिए गाँव जाना चाहती है , उसके जो पैसे हैं वो गाँव लेकर जायेगी और घर पर देगी ....
मौसी बोली कौन से पैसे घर का किराया और ख़र्चे और तू भी तो सुबह का नाश्ता और कभी -कभी तू रात का खाना भी तो खाती है ।
मंजरी का मन बहुत उदास हो रहा था ,अब उसने सोच लिया था कि वो अगले महीने सिर्फ़ एक हज़ार रुपया ही मौसी को देगी बाक़ी गाँव जाने के लिये जमा करेगी ।
अगले महीने मंजरी ने ऐसा ही किया , मौसी -मौसा में बहुत कोशिश करी पैसे निकलवाने की लेकिन इस बार मंजरी ने भी जिद्द ठानी थी । चार महीने बीत गये थे मौसी -मौसा की पैसे देने वाली मुर्ग़ी मंजरी ने भी अब पैसे देने बंद कर दिए थे ।
अब तो मौसी मानों ऐसे हो गयी जैसे मंजरी उसकी बहन की बेटी ही ना हो , कहने लगी यहाँ रहना है तो पाँच हज़ार किराया देना होगा .मंजरी अब पूरी तरह समझ गयी थी की जब तक पैसा हो जेब मैं कोई पूछता है ,वरना धक्का मार निकालते हैं ।
अकेली लड़की को कोई किराये पर मकान देने को भी तैयार नहीं था , उधर से मौसी -मौसा के आँख में चुभने लगी थी मंजरी । उसके गाँव में फ़ोन करके बहुत कोशिश की गयी की मंजरी महीने में जो कमाती है ,वो उन्हें देती रहे तो ....मंजरी  उनके  घर रह सकती है वरना मंजरी अपना अलग ठिकाना करे ,मंजरी को सारे महीने की कमायीं देनी मंज़ूर ना थी क्योंकि वो सारे दिन तो काम के घर में रहती थी खाना खाती थी फिर किस बात के पैसे दे मौसी को और मौसी भी माँगने पर कहती थी पैसे ख़र्च हो गये ।नहीं मंजरी अब अपनी मेहनत की कमायीं नहीं देगी उसके भी कुछ अरमान हैं जिन्हें वो पूरा करना चाहती थी ।
इधर मौसी ने मंजरी को उसके गाँव भेजने की पूरी तैयारी कर ली थी ।
मंजरी उदास थी ,पर उसे यक़ीन था वो फिर शहर लौट कर आयेगी और अपने सपने सच करेगी ......
क्योंकि वो जान चुकी थी की मेहनत से सब कुछ मिलता है ।



आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...