* मुख्य भूमिका *

 महिलाएं समाज की नींव हैं ,महिलाओं की भूमिका के बिना समाज का कोई औचित्य ही नहीं ,इसलिए नींव पर मत प्रहार करना ,प्रहार किया तो इसकी तह में समा जाओगे मिट जाओगे ढेः जाओगे ।
 * महिलाओं को महिला दिवस की बधाई हो
,महिलाओं को सम्मान देनें की बात हुई यह भी अपने आप में बहुत बड़ी बात है ।
 चलिए कुछ सोचा तो गया महिलाओं के बारे में की महिलाओं भी कुछ कर सकती हैं ।

बस आज थोड़ा सा व्यंग करने को मन कर रहा है ,..किन्तु व्यंग में भी सच ही है ।

अरे भई क्यों ?   महिलाओं के लिए सिर्फ एक दिन का सम्मान साल के 365 दिन में से एक दिन महलिआओं को सम्मान दिया जाएगा , और  बाकी के364 दिन किस को सम्मान दिया जाएगा ...... चलो छोडिए ।
महिलाओं को किसी विशेष दिवस की आवयश्कता नहीं ..... महिला दिवस हर दिन होता है हर रोज होता है और प्रतिपल होता है ,और सदा सर्वदा होता रहेगा ।
हां अगर सम्मान की बात है तो हम महिलाओं को एक दिन का ही सम्मान ...  अरे वाह ! ऐसा नहीं चलेगा
महिलाओं को सम्मान देना है तो जीवन पर्यन्त दो।
 महिलाओं को किसी विशेष दिवस को देनेकी आवयश्कता कैसे और क्यों पड़ी?
  ओहो अच्छा तो बात यह है कि पुरुष प्रधान समाज को जब एहसास होने लगा की महिलाओं को सम्मान दिए बिना जीवन में तरक्की संभव नहीं है, उनके घर,परिवार और कुटुम्ब ,समाज ,और देश की नींव को पालित पोषित और उनके शिशुओं में सभ्य संस्कारों के गुण रोपित करने वाली महिलाएं ही हैं तब महिलाओं को सम्मान देने की आवश्यकता महसूस हुई ।
 अब आप सब बताईए , अगर इस दुनियां में सिर्फ पुरुष ही रह जाएं तो समाज की  स्थिति कैसी होगी क्या समाज आगे बड़ पाएगा ,ऐसा ही महिलाओं के साथ भी है ।
जब इस दुनियां की नींव के दो स्तम्भ ,महिला और पुरुष हैं तो किसी एक भी स्तम्भ के कमजोर होने से या ना होने पर समाज का समाज रहना ही सम्भव नहीं तो फिर क्यों?
  महिलाओं और पुरुषों को दोनों का समानता का  ,यही अधिकार हुआ ना।
 सिर्फ कहना नहीं है इसे जीवन में अपनाना भी है ,तभी समानता आएगी
किसी एक में अगर एक ताकत है ,तो दूसरे में कुछ और विशेषता होगी और यहीं प्रकृति का नियम भी है ।

  चलिए फिर आज से एक दिन पुरुष दिवस के रूप में भी मनाया जायेगा दिन पुरुष स्वयं तय कर लेंगे।

महिलाएं अपने नन्हे शिशुओं में बाल्यकाल से सभ्य ,सुसंस्कृत आचरण , समाजिक एवं व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा देकर समाज में जीने के काबिल बनाती है महिलाएं ही अपने बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से इतना परिपक्व बनाती हैं की जीवन में कठिन से कठिन परिस्थितियों का धैर्य पूर्वक सामना कर सकें।
साल में 365 दिन होते हैं ,और 365 दिन महिलाओं के लिए होते है ।
बाकी दिन महिलाएं कहां जाती है ?
यहीं रहती हैं ना इस धरती पर ।
क्या यह धरती सिर्फ पुरुषों से चलती है ?  नहीं ना
महिला और पुरुष यह धरती ना तो सिर्फ पुरुषों से ही चल सकती है ,और नए ही सिर्फ महिलाओं से ।
जब धरती में समाज की स्थापना के लिए स्त्री और पुरुष दोनों की आवश्यकता है तो सिर्फ ,महिला दिवस ही क्यों?

*जीवन की पतवार*

भागती-दौड़ती जिन्दगी की रफ्तार
ढील देता पतवार
क्षीण तार लहूलुहान
सम्भल जा मानव.....
तन के पिंजरे में
कैद सांसों के
जोड़ की तार
हृदय प्राणवायु
की पतवार ......
अस्तित्व था मेरा
समुन्दर
लहरों संग बाहर
आ निकला बूंद बनकर
जा बैठा कोमल
कपोलों के गुलाबों पर
इतराया खूब शबाब पर
देखकर सुन्दर ख्वाब मैं
जैसे सीप में मोती
नयनों में ज्योति
पुष्पों में ओस .....
अनामिका से उठाकर
फेंका मुझे इस कदर
मैं बूंद से फिर हो गई समुंदर
बूंद -बूंद एकत्र होकर माना की
मैं बनी समुंदर .....
बूंद की पतवार है समुंदर
समुंदर का जीवन है बूंदों के अंदर
तन के पिंजरे में कैद
सांसों की तार
हृदय प्राणवायु की पतवार ......
















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विचार,एहसास और भाव

सीमा पर तैनात रक्षप्रहरी की भांति
विद्यालय में शिक्षक की तरह ,घर में माता और
गुरुजन की तरह तैयार करके समाज के समक्ष 
प्रस्तुत करती हूं।
मेरे विचार मेरी निजी संपत्ति है ।
मेरा मेरे विचारों पर पूर्ण अधिकार है ।
अगर मेरे विचार किसी के कहने देखने और बहकाने 
से भड़कते हैं तो इसका तात्पर्य  मैं कमजोर हूं 
गुलाम हूं ,मुझे अपने विचारों पर अपना नियंत्रण करना ही नहीं आया ।
अतः मेरा तो यही मानना है पहले स्वयं के विचारों पर नियंत्रण करना सीखिए । किसी अन्य को दोष देने से कुछ नहीं होगा ।
अपने विचारों को इतना श्रेष्ठ बनाइए की बदल जाए  
दुनियां आपके विचारों से प्रेरित होकर ।


*लेखनी भाव सूचक*

"लेखनी"अक्सर यही कहा जाता है ,की लेखनी लिखती है
जी हां अवश्य लेखनी का काम लिखना ही है ।

या यूं कहिए लेखनी एक साधन एवम् हथियार की भांति अपना काम करती है।
लेखनी सिर्फ लिखती ही नहीं ,लेखनी बोलती है ,लेखनी कहती है ,लेखनी अंतर्मन में छुपे भावों को शब्दों के रूप में पिरोकर कविता,कहानी,लेख के रूप में परोस्ती है।
समाजिक परिस्थितियों से प्रभावित दिल के उद्गारों के प्रति सम भावना लिए लेखक की लेखनी -- वीर रस लिखकर यलगार करती है,लेखनी प्रेरित करती है देश प्रति सम्मान की भावना जो प्रति जन-जन में छिपी  देश प्रेम की भावनाओं को जागृत कर देश के शहीदों के प्रति सम्मान और गर्व का एहसास कराती है ।
वात्सल्य रस, प्रेम रस,हास्य रस,वीर रस ,लेखनी में कई रसों के रसास्वादन का रस या भाव होते हैं ।
महापुरुषों के जीवन परिचय को उनके साहसिक एवम् प्रेरणास्पद कार्यों को एक लेखक की लेखनी स हज कर रखती है ,और समय -समय महापुरुषों के जीवन चरित्र पड़कर जन समाज का मार्गदर्शन करती है ।
लेखनी का रंग
जब एहसासो के रूप में
भावनाओं के माध्यम से
काग़ज़ पर संवरता है
और जन-मानस के हृदय को
झकझोर कर मन पर अपनी छाप छोड़ता है ,
तब समझो एक लेखक की लेखनी का रंग अमिट होता है अमर होता है ।

मधुर राग *****

लिखने जो बैठा मधुर राग 
खुलने लगे कई राज
लब गीत गुनगुनाने लगे
चेहरे मुस्कराने लगे
हृदय ने छेड दी  तान
बजने लगे साज
आज बस में नहीं मेरे जज़्बात

आज फिर हृदय तरंगों में सुनाई
दे रहे है कई  शुभ संकेतों की पदचाप

फिजाओं में बिखरी है मंद मंद सुगंध
मन मयूर नाचे दसों दिशाओं में
फैल रहा है प्रकाश का स्वर्ण
गुनगुना रहे हैं भंवरे स्वछंद

मीठी सी कसक
चेहरे पर बिखरी है चमक
प्रफुल्लित है दिल ए गुलाब
सुनाई दे रही है मीठी सी खनक
सोलह कला सम्पूर्ण है पूर्णिमा का आफताब.....






*पदचाप जिसने बढ़ाया रक्तचाप*


 उस पल उस "पदचाप" की आवाज सुनकर जो मेरा रक्तचाप बड़ा था ,वो रक्तचाप आज भी बड़ने लगता है जब वो पल मुझे याद आता है ।

 आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं आखिर मुझे उस दिन इतना डर क्यों लगा , मैं इतनी डरपोक तो नहीं फिर भी ऐसा क्या हुआ उस दिन जो मैं भी डर गयी थी।
 यह बात सच है की कोई भी मनुष्य कितना भी ब हादुर क्यों ना हो परन्तु उसके दिमाग के कोने में एक डर अवश्य छिपा होता है ।

उस दिन लगभग रात्रि दो बजे की बात होगी, मुझे प्यास लगी थी ,यूं तो हर रोज रात्रि शयन से पहले मैं एक गिलास पानी अपने कमरे में रख लेती थी लेकिन उस ना जाने क्यों पानी रखना भूल गई ,प्यास बहुत तेज थी मूंह सूख रहा था मैं पानी लेने के लिए रसोई घर की और चल दी ।  हमारे घर में बालकनी से होकर सीढ़ियां ऊपर की और जाती हैं ,तभी मुझे सीढ़ियों में कुछ आवाज सुनाई दी पायल खनकने की ,मैंने न नजरअंदाज  किया ,और अपना पानी लेकर पीने लगी , मैं पानी लेकर अपने कमरे में जा रही थी ,तभी सीढ़ियों में से कुछ गिरने की आवाज अाई और मैं डर के मारे कांप गई ।
  अरे भाभी आप पानी लेने आयी थी , मैं भी अभी यहां से पानी लेकर गई जाते हुए जग का ढ़क्कन गिर गया था उसकी ही आवाज आई थी ।
 चलो आप भी अपने कमरे में जाओ और मैं भी जाती हूं नींद आ रही है ,इतने में फिर से किसी के पदचापों की आवाज आई दोनो फिर डर गई शांति से हम उस आवाज को सुनने लगे की यह आवाज कहां से और किसकी है ,हमारे कान आवाज कहां से आ रही है महसूस करना चाह रहे थे ,तभी एक और कुछ अलग से आवाज आई ,हमने अपने जासूस दिमाग  दौड़ाया ,दरवाजों की झिरियों से झांकने लगे ,सोचा डरना नहीं है ,अगर डर गए तो मर गए ,में और मेरी भाभी सीढ़ियों से बालकनी पर चड़ गए बालकनी से
छुपते- छीपाते हम ताका-झांकी के रहे थे ,तभी हमारी नजर सड़क पर घूम रहे कुत्ते पर पड़ी जिसने अपने मूंह में कुछ दबा रखा था ,जब वो उसे मूंह से निकलता उसमें से कुछ ढूंढने की कोशिश करता तब आवाज आती ।
इतने में पीछे से हाथ में डंडा लिए वही पद चाप करता जो हमने सुनी थी चौकीदार आ गया ,हमारी सांस में सांस अाई चलो कोई डर वाली बात नहीं ।
 कुछ पल को पदचाप ने हमें डरा ही दिया था ।
वो हमारा चौकीदार था ।
  

आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...