क्रमांक  - सभी व्यंजन (बिना स्वर केएक मात्रिक होते हैं
जैसे -  ... आदि  मात्रिक हैं ।
क्रमांक  -  स्वर  अनुस्वर चन्द्रबिंदी तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन एक मात्रिक होते हैं ।
जैसे - किसिपुसु हँ  आदि एक मात्रिक हैं ।
क्रमांक  -      अं स्वर तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन दो मात्रिक होते हैं
जैसे -सोपाजूसीनेपैसौसं आदि  मात्रिक हैं ।
क्रमांक . () - यदि किसी शब्द में दो ’एक मात्रिक’ व्यंजन हैं तो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक अर्थात दीर्घ बन जाते हैं जैसे ह१+म१ = हम =   ऐसे दो मात्रिक शाश्वत दीर्घ होते हैं जिनको जरूरत के अनुसार ११ अथवा  नहीं किया जा सकता है ।
जैसे -समदमचलघरपलकल आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं ।
. (परन्तु जिस शब्द के उच्चारण में दोनो अक्षर अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ दोनों लघु हमेशा अलग अलग अर्थात ११ गिना जायेगा ।
जैसे - असमय = //मय =  अ१ स१ मय२ = ११२    
क्रमांक  (किसी लघु मात्रिक के पहले या बाद में कोई शुद्ध व्यंजन हो तो उच्चारण अनुसार दोनों लघु मिल कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है।
उदाहरण - “तुम” शब्द में “’’” ’“’” के साथ जुड कर ’“तु’” होता है “तु” एक मात्रिक है और “तुम” शब्द में “” भी एक मात्रिक है और बोलते समय “तु+म” को एक साथ बोलते हैं तो ये दोनों जुड कर शाश्वत दीर्घ बन जाते हैं इसे ११ नहीं गिना जा सकता ।
इसके और उदाहरण देखें - यदिकपिकुछरुक आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं ।
  (परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दोनो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही अर्थात ११ गिना जायेगा
जैसे द-  सुमधुर = सु /धुर = +उ१ म१ धुर२ = ११२  
क्रमांक  () - यदि किसी शब्द में अगल बगल के दोनो व्यंजन किन्हीं स्वर के साथ जुड कर लघु ही रहते हैंतो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है इसे ११ नहीं गिना जा सकता ।
जैसे - पुरु = + / र+उ = पुरु = ,  
इसके और उदाहरण देखें = गिरि
 (परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही गिना जायेगा-
जैसे -  सुविचार = सुवि / चा /  = +उ१ व+इ१ चा२ र१ = ११२१
क्रमांक  () - ग़ज़ल के मात्रा गणना में अर्ध व्यंजन को  मात्रा माना गया है तथा यदि शब्द में उच्चारण अनुसार पहले अथवा बाद के व्यंजन के साथ जुड जाता है और जिससे जुड़ता है वो व्यंजन यदि  मात्रिक है तो वह  मात्रिक हो जाता है और यदि दो मात्रिक है तो जुडने के बाद भी  मात्रिक ही रहता है ऐसे  मात्रिक को ११ नहीं गिना जा सकता है
उदाहरण -
सच्चा = स१+च्१ / च१+आ१  = सच्  चा  = २२
(अतः सच्चा को ११२ नहीं गिना जा सकता है)
आनन्द =  / +न् /  = आ२ नन्२ द१ = २२१  
कार्य = का+र् /  = र्का     = २१  (कार्य में का पहले से दो मात्रिक है तथा आधा  के जुडने पर भी दो मात्रिक ही रहता है)
तुम्हारा = तुम्हारा = तु१ म्हा२ रा२ = १२२
तुम्हें = तु / म्हें = तु१ म्हें२ = १२
उन्हें =  / न्हें = उ१ न्हें२ = १२
 (अपवाद स्वरूप अर्ध व्यंजन के इस नियम में अर्ध  व्यंजन के साथ एक अपवाद यह है कि यदि अर्ध  के पहले या बाद में कोई एक मात्रिक अक्षर होता है तब तो यह उच्चारण के अनुसार बगल के शब्द के साथ जुड जाता है परन्तु यदि अर्ध  के दोनों ओर पहले से दीर्घ मात्रिक अक्षर होते हैं तो कुछ शब्दों में अर्ध  को स्वतंत्र एक मात्रिक भी माना लिया जाता है
जैसे = रस्ता = र+स् / ता २२ होता है मगर रास्ता = रा/स्/ता = २१२ होता है
दोस्त = दो+स् /२१ होता है मगर दोस्ती = दो/स्/ती = २१२ होता है
इस प्रकार और शब्द देखें
सस्ता = २२दोस्तों = २१२मस्ताना = २२२मुस्कान = २२१संस्कार२१२१    
क्रमांक . () - संयुक्ताक्षर जैसे = क्षत्रज्ञ द्ध द्व आदि दो व्यंजन के योग से बने होने के कारण दीर्घ मात्रिक हैं परन्तु मात्र गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं  
उदाहरण = पत्र२१वक्र = २१यक्ष = २१कक्ष - २१यज्ञ = २१शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१
गोत्र = २१मूत्र = २१,
. (यदि संयुक्ताक्षर से शब्द प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं
उदाहरण = त्रिशूल = १२१क्रमांक = १२१क्षितिज = १२
. (संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं
उदाहरण -प्रज्ञा = २२  राजाज्ञा = २२२,
 (उच्चारण अनुसार मात्रा गणना के कारण कुछ शब्द इस नियम के अपवाद भी है -
उदाहरण = अनुक्रमांक = अनु/क्र/मां/ = २१२१ (’नु’ अक्षर लघु होते हुए भी ’क्र’ के योग से दीर्घ नहीं हुआ और उच्चारण अनुसार  के साथ जुड कर दीर्घ हो गया और क्र लघु हो गया)      क्रमांक  - विसर्ग युक्त व्यंजन दीर्ध मात्रिक होते हैं ऐसे व्यंजन को  मात्रिक नहीं गिना जा सकता ।
उदाहरण = दुःख = २१ होता है इसे दीर्घ (नहीं गिन सकते यदि हमें  मात्रा में इसका प्रयोग करना है तो इसके तद्भव रूप में ’दुख’ लिखना चाहिए इस प्रकार यह दीर्घ मात्रिक हो जायेगा ।
मात्रा गणना के लिए अन्य शब्द देखें -
तिरंगा = ति + रं + गा =  ति  रं  गा  = १२२    
उधर = /धर उ१ धर२ = १२
ऊपर = /पर =   पर  = २२    
इस तरह अन्य शब्द की मात्राओं पर ध्यान दें =
मारा = मा / रा  = मा  रा  = २२
मरा  =  / रा  =   रा  = १२
मर = मर  = 
सत्य = सत् /  = सत्    = २१

अधूरा मनुष्य

चाहे कितना भी आगे बढ जाए मनुष्य कहीं भी पहुंच जाए आसमान की ऊंचाईयां छू ले दुनियां के सारे सुख साधन मिल जाएं मानव को ।
परंतु वास्तविक सुख और शांति का एहसास नहीं होता ।
एक शून्यता एक खोज सब सुख-साधन होने के पश्चात ,मनुष्य स्वयं को रिक्त पाता है,जाने कौन सी खोज जाने कौन सी प्राप्ति मनुष्य को विचलित करती रहती है ।
 सत्य एक खोज ,प्राप्ति तो आत्मा से परमात्मा के मिलन की होती है ।
मनुष्य की स्मृतियां संसार के सुख भीगते-भीगते विस्मृत हो जाती हैं ,वह भूल जाता है की वो यात्रा पर है, तन तो एक माध्यम है धरती पर जीवन यात्रा का ।

सत्य जो शाश्वत है, सत्य जो सरल है ,सत्य प्रेम है।

माना कि आगे बढना प्रकृति का नियम है ,नित नए शोध ,आविष्कार करना मनुष्य का अधिकार है ।

सत्य जो शाश्वत है सत्य जो कल भी थी आज। ही और सदा सर्वदा रहेगा

भारत कौन है,क्या है,भारत आप हैं मैं हूं ,और हम सब हैं ,भारत की पहचान भारत लका अस्तित्व ,हम सब भारत के नागरिकों से हैं ,हम सब भारतीयों भारत के नागरिकों के बिना भारत देश मात्र क्षेत्रफल या सीमा ही बनकर रह जाएगी ।
भारत मेरे देश की पहचान है यहां की संस्कृति ।

मेरे प्यारे देशवासियों ,भारत के नागरिकों
 भारत की पहचान क्या है?
 भारत मात्र क्षेत्रफल या क्या किसी सीमा का नाम  ही है ?  नहीं
भारत की पहचान हैं , हम सवा सौ करोड़ देशवासी।
आप , मैं और हम सब के बिना भारत की पहचान सिर्फ एक क्षेत्रफल है ।
किसी भी देश की संस्कृति ,वहां की सभ्यता ही वहां के नागरिक और नागरिकों के उच्च आदर्श ,कर्मों में कर्मठता ,ज्ञान ,विज्ञान और संस्कार ही उस देश की पहचान होते हैं ।
  सभी भारतीय ,भारत के नागरिकों के द्वारा किए गए निस्वार्थ कर्म जो स्वार्थ सिद्धि से ऊपर उठ कर सबके और समाज के हित में किए जाते हैं । 



डरना किस बात का .......

 डरते हैं, ना जाने क्यों एक
अनजाना डर से हम
 मनुष्य ग्रसित रहते हैं
आवयशक है ,यह डर भी
किन्तु डर से डरने की नहीं
सचेत रहने की आवश्यकता है
हर परिस्थिति से लडने में सक्षम
बनिए, डरिए नहीं, ऐसे बनिए की डर
भी आपको देखकर नम्र हो जाए।
अपना आज खराब क्यों करना
वर्तमान को संवारिए ,भविष्य
स्वयं संवर जायेगा ।
जो बीत गया लौट कर नहीं आने वाला
बीते हुए कल के दर्दों को कुरेदना भी
बहुत भाता है मनुष्य को
तभी तो मनुष्य अपनी जिंदगी के
सौ प्रतिशत में से कुछ प्रतिशत ही
वर्तमान में जीता है, बाकी सब
भूत और भविष्य की चिंता में बीता देता है
वर्तमान को बेहतर दें,भविष्य सुन्दर होगा
आत्मविश्वास ,साहस,और
धैर्य  की पूंजी संग रखिए ।
डर कुछ नहीं ,डर हम मनुष्यों
की सबसे बड़ी कमजोरी है
कमजोरी को ही अपनी ताकत बनाईए
डर कुछ नहीं हमारी सोच है इसे बदलकर
अपना जीवन खुशहाल बनाइए।




*लहूलुहान सृष्टि*

सृष्टि की रचना                     
प्रकृति की अद्भुत देन
प्राणियों के लिए के लिए वरदान                 
स्वार्थ में अंधा मानव 
बन बैठा शैतान 
मानव हो गया पथभ्रष्ट       
इंसानियत  लहूलुहान
नसों में हैवानियत का जहर
मानव कृत्यों का कहर   
राक्षस वृत्ति, मनुष्य बुद्धि
अब आने को है जलजला
प्रकृति में अत्यंत जहर घुला
मानवता कराह रही
सृष्टि डगमगा रही 
परीक्षा की घड़ी
अंत होने को है सृष्टि
मनुष्य ने मनुष्यता के नाम पर
घोर  अनिष्ट की उपज करी
 अन्तिम घड़ी जीवन की
भर गई पाप की गठरी
अस्तित्व विहीन होने को है सृष्टि
लहूलुहान घायल हो रूदन कर रही ......                  

गीली मिट्टी



चाक चले जब गीली मिट्टी
लेती ज्यूं आकार प्रिए
नव सृजन की नव रचना
कोमल,प्यारी नन्हीं कलियां
मन हर्षित होकर अपना
सुन्दर जीवन और शुभ सपना।

चाक चले जब गीली मिट्टी
कच्ची मिट्टी का नव आकार
व्याकुल मन के सपने हजार
देने को नव रंगो का संसार
आतुर हो रहा चित्रकार।

चाक चले जब गीली मिट्टी
लेती ज्यों नव आकार
दुनियां में पहचान बनेगी
मेरी कृति महान बनेगी
दूंगा मैं तुझे दिव्य संस्कार
उच्च आदर्शों का व्यवहार।


चाक चले जब गीली मिट्टी
लेती ज्यों नव आकार
अग्नि परीक्षाओं का संसार
ठोक पीट का व्यवहार
तू संवरेगा तू निखरेगा
चाक चले जब गीली मिट्टी
लेती ज्यों नव आकार










जिन्दगी कोई रेस तो नहीं

जिन्दगी है साहब 
कोई रेस नहीं
इतना दौड़ कर जाओगे 
कहां ? जिन्दगी कोई प्रतिस्पर्धा
नहीं ,जीवन के आरम्भ और अंत
 का खेल है सारा

भागना सिर्फ भागना
ही तो नहीं जिन्दगी 
थोड़ा संभलकर चलें
जिन्दगी स्वयं की है 
सीमित रफ्तार से चलें

यात्रा पर हो
सफ़र का आनंद लो
यात्रा पर यात्रा
ना दो स्वयं को यातना
स्वयं ही स्वयं की प्रताडना
मनुष्य की विचित्र विडम्बना

सिलसिला है, सफ़र का
बेहतरीन यादों का सिलसिला
संग ले जाईए
कुछ लाज़वाब दे जाइए
कुछ सर्वश्रेष्ठ कर्मों के कर्मफल
का मुनाफा ले जाइए ।






आओ अच्छा बस अच्छा सोचें

 आओ कुछ अच्छा सोचें अच्छा करें , अच्छा देखें अच्छा करने की चाह में इतने अच्छे हो जायें की की साकारात्मक सोच से नाकारात्मकता की सारी व्याधिया...