*अभिशाप*

"प्राचीन काल से
चली आ रही परम्परा
एकलव्य , कर्ण
ने भी सहा अभिशप्त
होने का दर्द ,साधारण
मनुष्य की क्या औकात  "
"देकर जन्म मुझे
     चली गई
मेरे जीने की खातिर
अनगिनत दुख सह गई
जीवनदान देकर मुझको
सहारे जिसके छोड़कर
दुनियां से अलविदा हो गई
तुझ बिन जीवन बना अभिशाप
मेरा है , ना जाने कौन से जन्म
का पाप मेरा था
लोग कहते हैं कर्म जली हूं
मनहूस कहीं की पैदा होते ही
मां को खा गई
मां क्या करूं मैं
ऐसे जीवन का
जिसमें ना कोई
मान मेरा ,तुम ही
तो थी अभिमान मेरा
क्या करूं ऐसे अभिशप्त
जीवन का
दुनियां वाले मुझे
मनहूस कहते,
मां क्या मैं,
इतनी बुरी हूं ,मां तुझ बिन
बना जीवन अभिशाप मेरा है
ये अभिशप्त जीवन
बना मेरे लिए सजा है ।



1 टिप्पणी:

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