"आज और कल "
लोग कहते हैं ,की,आज कल से
बेहतर है ,मेरा तो मनाना है ,कि जो
कल था ,वो आज से बेहतर था ।
वो कल था,जब हम खुले आंगनो में
संयुक्त परिवार संग बैठ घण्टों क़िस्से
सुनते -सुनाते थे , बुर्जर्गो की हिदायतें
बातों -बातों में कहानियाँ ,मुहावरे,लोकोक्तियाँ
के माध्यम से हमारी पीढ़ी का मार्गदर्शन होता था ।
खुले मैदानों में दिन भर जी भर खेलते थे
साँझ होने पर ,ज़बरन घर पर लौटाया जाता था
शारीरिक,और मानसिक दोनो ही व्यायाम
हो जाते थे।
याद है मुझे ,वो रस्सी कूदना ,कबड्डी खेलना
पिट्ठु,गिल्ली डंडा , खो -खो ,छूपन छिपायी ,
ऊँच-नीच व घर -घर इत्यादि खेलना
मिट्टी में गिरते सम्भलते थे , कोई फ़िक्र ना थी
कपड़े मैले भी होते थे ।
मिट्टी के कच्चे घरों में सुख ,चैन की नींद सोते थे
दीवारें भले ही कच्ची होती थीं ,परन्तु रिश्तों की
डोर पक्की होती थी ।
आज घरों की दीवारें भले ही मजबूत होती हैं
परन्तु रिश्तों की डोर बहुत ही कच्ची होती जा रहीं हैं ।
हम कभी भी अपने -अपने कमरों में क़ैद होकर नहीं बैठे ।
आज भी बच्चे खेलते हैं ,परन्तु उनके खेलने की जगह
सिमट गयी है ,आज बच्चे खुले मैदानो में नहीं खेलते।
अपने -अपने कमरों में क़ैद स्क्रीन पर चलती फ़िल्म पर ही खेलते है
उन्हें किसी के साथ की आव्यशक्ता नहीं ।
घण्टों एक ही स्थिति में बैठ वो स्वयं का मनोरंजन कर लेते हैं
शारीरिक व्यायाम ,तो दूर की बात मानसिक व्यायाम
भी अब नहीं होता , कम्प्यूटर महाशय सभी प्रश्नों के उत्तर दे देते हैं ।
घर के आँगन , पार्क ,खेलने के मैदान अब सुनसान पड़े रहते है
जहाँ कभी ,बच्चों के खेलने को रौनक़ मेले लगा करते थे ।