कुछ तो है ( कश्मकश)


  या तो मैं किसी को समझ नहीं पाता
या कोई मुझे समझ नहीं पाता
कुछ तो खामियां होंगी
हममें भी यूं ही कोई किसी
को ंनजरअंदाज नहीं करता
या तो वो मेरी पहुंच से बहुत ऊपर हैं
या फिर मैं उनकी समझ से बाहर
ये समझने ना समझने के खेल में
बड़ी कश्मकश है ,किस के मन में
क्या चल रहा है समझ नहीं आता
किसी को समझो कुछ
और असली चेहरा कुछ और ंनजर आता है
आईने के सामने तो हर कोई
स्वयं को स्वांरता है
जो आईने में ंनजर नहीं आता
किसी भी मनुष्य का चरित्र
उस पर क्यों नहीं ंनजर डालता
जाने क्यों मनुष्य स्वयम के चरित्र
को नहीं निखारता
कहते हैं मन के भाव चेहरे पर
झलक जाते हैं , फिर भी मनुष्य
आत्मिक सौंदर्य पर क्यो नहीं ंनजर डालता
या तो मैं किसी को समझ नहीं पाता
या मुझे कोई समझ नहीं पाता
इसी समझने ना समझने की कश्मकश
में जीवन गुजर जाता है ।


6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ऋतु जी ।

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  2. आईने के सामने तो हर कोई
    स्वयं को स्वांरता है
    जो आईने में ंनजर नहीं आता
    किसी भी मनुष्य का चरित्र
    उस पर क्यों नहीं ंनजर डालता
    जाने क्यों मनुष्य स्वयम के चरित्र
    को नहीं निखारता
    बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति ऋतु जी

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  3. इंसान देख कर भी कुछ नहीं देखना चाहता ... पर जो चाहता है उसे जरूर देख लेता है ...
    अच्छी रचना है ...

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